साक्षात्कार.. मोटा अनाज न केवल सेहत के लिए बेहतर है, अपितु पानी की बचत भी करता है...श्री अन्न उपजाओ, श्रीअन्न खाओ और पानी बचाओ: प्रहलाद पटेल...

भोपाल। अनाज और पानी। हमारे जीवन की दो महत्वपूर्ण जरूरतें। अनाज को लेकर जहां सेहत से जुड़े मसले चर्चाओं में हैं, वहीं जल यानि पानी को लेकर लगातार आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो पानी को लेकर ही होगा। अनाज की पैदावार का सीधा संबंध मिट्टी और पानी से है। हमने इस मुद्दे पर केंद्रीय केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण एवं जल शक्ति राज्यमंत्री प्रहलाद सिंह पटेल से चर्चा की। उनका कहना है- हम गेहूं, गन्ने जैसी फसलों की तरफ अंधाधुंध भागे, जिससे न केवल हमारी मिट्टी अपितु हमारे शरीर की सेहत भी खराब हुई। यदि देश का हर नागरिक जान जाए कि एक किलो गेहूं का आटा और एक किलो शक्कर बनने में कितना पानी लगता है तो वह उन नीतियों पर सवाल उठाएगा कि क्यों हमारे बाजरा जैसे श्री अन्न को मोटा अनाज कहा गया? उनका मानना है कि बाजरा वर्ष हरित क्रांति के बाद की गई गलतियों को सुधारने का काम करेगा। मोदी सरकार ने पुराने जलस्रोतों को बचाने से लेकर नए जलस्रोत बनाने का काम किया है। प्रस्तुत है श्री पटेल से चर्चा के प्रमुख अंश- 
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2023 को बाजरा वर्ष घोषित करने के बाद इसे श्रीअन्न के नाम से पुकारा जा रहा है। लेकिन, पैदावार, प्रसंस्करण और बाजार के हिसाब से बात करें तो उत्साहजनक नतीजे नहीं दिख रहे। आप क्या मानते हैं?
-अच्छी बात है कि दुनिया के खाद्य वैज्ञानिकों ने हमारे श्री अन्न का पहली बार प्रमाणीकरण किया। बुजुर्ग तो जानते थे और मानते थे कि यह हमारा आदर्श भोजन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2017 में दुबई के अंतरराष्ट्रीय मेले में ये बात कही थी। उन्होंने 2018 में भारत में बाजरा वर्ष घोषित किया। 2021 में पांच मार्च को संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किया। 2017 से 2023 तक की यह यात्रा कितनी उत्साहजनक है। अभी यह कहने में हिचक हो रही, क्योंकि इसके अनर्थ भी निकलेंगे कि हमने मात्रा पर बहुत जोर दिया, लेकिन गुणवत्ता के बारे में कुछ नहीं किया। गेहूं और धान जैसी फसलों में आगे बढ़े। इनमें इतना पानी लगता है, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। एक किलो शक्कर, एक किलो चावल और एक किलो आटा बनने में कितना पानी लगता है यह देश के हर नागरिक को मालूम होना चाहिए। मोटा अनाज सबसे कम पानी में पैदा होने वाली फसल है। कोदो के बीज की उम्र पंद्रह साल तक है। दुनिया में उसके मुकाबले उम्र रखने वाला दूसरा बीज नहीं है। रागी सबसे खराब जमीन में पैदा होगी, सबसे कम पानी लगेगा, सबसे कम समय में पकेगी। यह 62 दिन में पकती है और गेहूं की फसल 120 दिन में पकती है। मुझे लगता है कि पहले हमने गलत रास्ता अपनाया। अगर हम निर्यात कर रहे हैं तो शक्कर का कर रहे हैं, आटे का कर रहे हैं। ये खर्चीली चीजें हैं। एक तरह से हम पानी बेच रहे हैं। हमने मात्रा का जो भूत अपने दिमाग पर चढ़ाया उसने हमें बहुत नुकसान पहुंचाया।
-सरकार चीजों को दर्शनीय बनाने में भरोसा करती है। बाजरे को ‘श्री अन्न’ कह देना ही बड़ी उपलब्धि हो जाती है। ‘श्री अन्न’ भी नायक चुनकर उसे भुनाने की रणनीति का हिस्सा भर बन कर तो नहीं रह जाएगा?
- श्री अन्न नाम तो पहले से था। दक्षिण में किसी भी तरह के अन्न को श्री अन्न कहते हैं। हमारे यहां मोटा अनाज नहीं कहते थे। यह चलन तो 1962 के बाद आया है। उसके पहले कोई गेहूं की चर्चा नहीं करता था। इसे गरीबों का अनाज कहने वाला कौन था? गेहूं का बाजार बनाने में हम इतना गिरे कि मोटा अनाज को गरीबों का अनाज बता दिया। ये कहने वाले हम नहीं थे, कोई और लोग थे। आज की तारीख में हम दुनिया का चालीस फीसद ‘मिलेट्स’ पैदा करते हैं। बाजरे की मात्रा ज्यादा है। आप बर्फ से लेकर पहाड़ से लेकर मरुस्थल तक चले जाइए, मोटा अनाज सब जगह पैदा होता है। बाकी फसलें नहीं होतीं। ये चीजें हमारे लिए अहम हैं। आज की तारीख में बाजरा ही सबसे ज्यादा है। रागी आपके पास नहीं, कोदो आपके पास नहीं। जगनी तो आदिवासी क्षेत्रों के अलावा कोई पहचान नहीं पाएगा कि है क्या? चीजें हैं तो उसका प्रचार करना होगा। अभी लोग खुद पैदा करते हैं खाने लायक। मैंने अपने खेत में रागी उपजाई तो खरीदार नहीं मिला। एक समय वो था और आज रागी ढाई सौ ग्राम तौल कर मिल रही। यह देखने की नहीं पूरी तरह अपनाने की बात होगी। लोग समझ रहे हैं।
-गेहूं कोई और पैदा करता है तो दलिया कोई और बनाता है। क्या किसानों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती कि खाद्य-प्रसंस्करण का काम खुद कर सकें?
- इसके लिए मैं प्रधानमंत्री का आभारी हूं। उन्होंने देखा कि हमारा सिर्फ विभाग था। मंत्रालय बनाने का काम प्रधानमंत्री ने किया। प्रधानमंत्री ने किसान संपदा योजना इसी भावना से शुरू की। आज के समय में यह हमारी सबसे लोकप्रिय योजना है। ‘यूनिट स्कीम’ का लाभ हजार से ज्यादा लोग ले चुके हैं। ‘मेगा फूड पार्क’ योजना की विफलता और कमजोरियों को देख कर यह शुरू हुई। फिर प्रधानमंत्री सूक्ष्म उद्यम योजना शुरू हुई। अभी 24 लाख छोटे खाद्य-प्रसंस्करण खंड काम कर रहे हैं। यह सौ फीसद असंगठित क्षेत्र है। कोई घर में पापड़ बना रहा है, अचार बना रहा है। इसलिए एफपीयू बन गए। बाद में कहा गया कि जो भी व्यक्ति छोटा उद्यमी है वो दस लाख का कर्ज लेगा तो उसे पैंतीस फीसद सबसिडी मिलेगी। प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि हम बाजार बनाने के लिए मंच दें। नाफेड जैसी संस्था आगे आए कि कम से कम उन्हें बुनियाद मिलेगी, उसके बाद वो आनलाइन जाएं, दुनिया में कोई सीधे लेना चाहे तो नाफेड से करार का कोई बंधन नहीं। उससे बेहतर कीमत पर अगर समूह से सीधे कोई लेता है
हमें अपनी गुणवत्ता का बाजार बनाना होगा। फिर हमने खाद्य-प्रसंस्करण में काम करने वाली कंपनियों की सूची देखी। जब मैंने सूची मांगी तो 27 से शुरू हुई और बमुश्किल 103 पर पहुंच पाई। तुरंता खाद्य से लेकर जैविक आहार के लिए हमने काम शुरू किया। अब हम बजट के भरोसे नहीं हैं। पैसा खत्म होने पर वैकल्पिक स्थिति बनाई है। ‘मिलेट’ उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए मंत्रालय ने उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआइ) योजना में 30 प्रस्तावों को अनुमोदित किया है। ‘मिलेट’ को दस राज्यों के 19 जिलों में एक जिला एक उत्पाद ओडीओपी बनाया गया है।
- शहरों में एक तरफ बड़ी आबादी पीने के पानी के संकट से जूझ रही तो एक बड़ा तबका बगीचे से लेकर कार साफ करने में उसका इस्तेमाल करता है। पीने के पानी के संकट से लेकर उसकी इस बर्बादी पर आपकी क्या योजना है?
- मैं हमेशा कहता हूं कि निजी तौर पर जितना पानी हम साल भर में इस्तेमाल करते हैं, उतना जमीन में डाल दें तो हालात बदल जाएंगे। मैंने नौजवानों से कहा, आपके पास जमीन नहीं है, ट्यूबवेल मर गए हैं, हैंडपंप स्मारक बने हैं। उन्हें खोल कर आप ‘रिचार्जिंग पिट’ की तरह काम कर सकते हैं। गांवों में हम प्रति व्यक्ति 55 लीटर पानी दे रहे हैं। पांच का परिवार है तो पौने तीन सौ लीटर। उसमें से पचास लीटर ‘ग्रे वाटर’ बनाकर चौबीस घंटे में उसे फेंक देना है। पांच हजार की आबादी का गांव या उससे ज्यादा का होगा तो आप मान कर चलिए कि आपको तकनीकी रूप से जाना पड़ेगा। अन्यथा देसी तरीके से उसका उपयोग कर सकते हैं जो अभी शुरू हुई है। ‘ग्रे वाटर’ का मकसद है कि हम एक जगह पर गांव का पानी ले जाएं। चिन्मय मिशन ने कुंभ मेले में इसका इस्तेमाल किया था। इसके लिए सिर्फ हम सबकी सहमति की जरूरत है। उससे ऊपर जनसंख्या होगी तो हम जो शहरों का हाल देख रहे हैं, ‘एसटीपी प्लांट’ लगाए बगैर काम नहीं हो सकता है। सबसे बड़ा ‘एसटीपी प्लांट’ दिल्ली में बनकर तैयार है। हम ये दावा कर सकते हैं कि दिल्ली से लेकर मथुरा के बीच में यमुना साफ रहेगी उस संयंत्र के शुरू होने के बाद। ‘ग्रे वाटर मैनेजमेंट’ हो या ‘कैच द रेन’ दोनों पर सरकार का पूरा ध्यान है।
- देश में जलस्रोतों का अतिक्रमण बड़ा मुद्दा है। इसके लिए सरकार की क्या रणनीति है?
-सारे जलस्रोतों की जियोट्रैकिंग हो चुकी है। पानी राज्य का विषय है। हमने निशानदेही करके भेज दी कि आपके जलस्रोत हैं जो पुराने थे। आज की स्थिति ये है, अब आप तय कीजिए कि इसे अतिक्रमण मुक्त कैसे करवाना है आपको। करना राज्य को है। जलजीवन मिशन भी राज्य सरकार का काम नहीं था, लेकिन प्रधानमंत्री ने किया। यह भी संदेश के रूप में जाना चाहिए कि राज्यों को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी। कमलनाथ जी ने प्रधानमंत्री आवास वापस कर दिए, क्योंकि उसमें प्रधानमंत्री का नाम था। जलजीवन मिशन को नुकसान पहुंचाया कि प्रधानमंत्री को श्रेय मिलेगा। सरकार अगर पैसा दे रही थी तो वापस कर दिया कि हम इसमें अंशदान नहीं कर सकते। यह राज्य-केंद्र संबंधों को ठेंगा दिखाने की कोशिश है। हम अपने श्रेय के कारण देश के कमजोर तबके का नुकसान कर दें या अपनी जिम्मेदारी से हट जाएं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
- पानी की गुणवत्ता नियंत्रित करने के लिए कितने काम हुए हैं?
- सबसे अहम यह है कि गांव के स्तर पर पानी की समिति बनाई गई है। इनमें 50 फीसद महिलाओं की संख्या अनिवार्य है। इसके साथ ही सभी आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बसावटों को जल जीवन मिशन की छतरी के अंदर ले आया गया है। अब देश का कोई भी नागरिक आर्सेनिक और फ्लोराइड युक्त पानी पीने के लिए मजबूर नहीं है।

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  1. भाई इंटरव्यू आपने लिया है क्या

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