नवी मुंबई में रविवार को महाराष्ट्र भूषण सम्मान समारोह के दौरान लू लगने से 11 लोगों की मौत की खबर परेशान करने वाली है। यह महाराष्ट्र सरकार का कार्यक्रम था। मध्य अप्रैल में होने वाले इस कार्यक्रम का समय दिन में साढ़े 11 बजे से एक बजे के बीच पता नहीं क्या सोच कर रखा गया। जबकि मुंबई में गर्मी और उमस कुछ ज्यादा ही रहती है। नवी मुंबई में उस दिन अधिकतम तापमान 38 डिग्री सेल्सियस रेकॉर्ड किया गया था। इस तापमान में लोगों को कड़ी धूप में बैठे रहना पड़ा। स्वाभाविक ही कार्यक्रम समाप्त होते-होते तक 50 लोगों को लू लगने के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ गया।
हमारी सरकारों को ऐसे मामलों में ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है। कार्यक्रम से ज्यादा लोगों की जान महत्वपूर्ण है, यह सरकारों में बैठे लोगों को सोचना होगा। मौसम के बदलते मिजाज से उपजे संकटों का दायरा बहुत बड़ा है। साल-दर-साल गर्म होते जा रहे मौसम से लोगों की जान को तो खतरा बढ़ ही रहा है, आर्थिक मोर्चे पर भी चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। पुराना रिकार्ड देखें तो भारत में वर्ष 2000 से 2019 के बीच हर साल औसतन 24 दिन हीट वेव वाले रहे, जबकि उससे पहले के 20 वर्षों में औसत आंकड़ा साल में 10 दिनों का ही था।
मौसम विभाग के मुताबिक मैदानी इलाकों में जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए, तब हीट वेव की स्थिति बनती है। पहाड़ी इलाकों में तापमान 30 डिग्री सेल्सियस और तटीय इलाकों में 37 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने पर ऐसी स्थिति बनती है। आश्चर्य नहीं कि साल 2010 से 2019 के बीच गर्म मौसम से मौतें करीब 30 फीसदी ज्यादा हुईं। इकॉनमी के मोर्चे पर भी हालात कम गंभीर नहीं हैं। नॉर्थ कैरोलाइना की ड्यूक यूनिवर्सिटी में हुई एक रिसर्च के अनुसार दिल्ली में जब तापमान बहुत बढ़ जाता है तो हर घंटे 15-20 मिनट काम का नुकसान होता है। रिसर्च कहती है कि भारत में हर साल गर्मी से 101 अरब मैन आवर का नुकसान होता है।
आने वाले वर्षों में कुछ सुधार होने की उम्मीद नहीं है, अपितु हालात और बदतर ही होने वाले हैं। अनुमान है कि 2030 तक गर्मी से काम के घंटों का नुकसान इतना बढ़ जाएगा कि जीडीपी को ढाई फीसदी यानि करीब 250 अरब डॉलर तक की चपत लग सकती है। दिक्कत यह भी है कि भारत में वर्कफोर्स का करीब 75 फीसदी हिस्सा ऊंचे तापमान वाली जगहों पर ही काम करता है। इसीलिए यह और भी जरूरी है कि बचाव के इंतजाम अभी से शुरू कर दिए जाएं। इसके लिए कामकाज का पैटर्न बदलना और फैक्ट्रियों के भीतर काम करने के हालात में सुधार लाना होगा। चूंकि भारत में बड़ी आबादी को असंगठित क्षेत्र में रोजगार मिला हुआ है, इसलिए छोटी औद्योगिक इकाइयों को सबसिडी देकर उन्हें वर्कप्लेस को बेहतर बनाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा।
सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा तो यह है कि शहरों के विकास मॉडल पर भी मौसम के हिसाब से गौर करना होगा। नगरीय निकायों को इसके लिए विशेष पहल करनी होगी। नगरों का मास्टर प्लान बनाया जाए, तो पहले जलवायु पर विशेष ध्यान दिया जाए। हमारे यहां तो मास्टर प्लान नेताओं और अधिकारियों के हिसाब से बनाया जाता है। भोपाल जैसे शहरों में तो इनके स्वार्थ इतने बढ़ जाते हैं कि बीस-बीस साल तक मास्टर प्लान ही लागू नहीं हो पाते। खैर..।
फिलहाल पूरे देश में गर्मी का मौसम है। ग्लोबल वार्मिंग को अनदेखा नहीं किया जा सकता। भले ही बीच-बीच में बादल और बारिश का योग बन रहा है, लेकिन इससे तो मौसम और अधिक डिस्टर्ब हो रहा है। हिमालय पिघल रहा है। ग्लेशियरों का खतरा बढ़ा है। पहाड़ों को हमने अतिक्रमण कर कांक्रीट के जंगलों में बदलने का काम शुरू कर दिया है। जंगलों को काटा जा रहा है। शहर बसाए जा रहे हैं। तो हीट बेव से बचाव होगा कैसे? क्या हम विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर अपने ही दुश्मन बन रहे हैं।
और...अब कई राज्यों में चुनाव हैं या आ रहे हैं और फिर आम चुनाव भी होने हैं। सो राजनीतिक गतिविधियां भी बढ़ रही हैं। सभाओं का आयोजन हीट बेव और मौसम को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। जबरन भीड़ एकत्र करने से खतरे बढ़ जाते हैं। एक तरफ कोरोना, दूसरी तरफ हीट बेव। कहीं तो सोचना पड़ेगा। मौसम से कुश्ती ठीक नहीं, सावधानी बरतने में ही भलाई है। पहले मौसम देखें, फिर कोई निर्णय लें। कोई पानी पिलाने भी आएगा, उम्मीद न रखें।
जान है तो जहान है।
- संजय सक्सेना
Post a Comment