संपादकीय... कुछ हल तो निकले इन पहलवानों के मुद्दों का...


आखिर देश के टॉप मेडल विजेता पहलवान एक बार फिर जंतर मंतर पर क्यों बैठे? इस सवाल का जवाब तो आना ही चाहिए। क्या उनके आरोपों की उच्च स्तरीय जांच नहीं होना चाहिए? आने वाली पीढ़ी को एक अच्छा संदेश तो मिले। आखिर ऐसी परिस्थिति में कौन अपने बच्चों को जानकर शोषण के दावानल में धकेलना चाहेगा?
 स्थिति वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। ये लोग धरनास्थल पर रात बिता रहे हैं और उनका कहना है कि जब तक उनकी शिकायत पर उपयुक्त कार्रवाई नहीं होती वह धरने पर बैठे रहेंगे। यह खासकर इसलिए कि पहलवानों ने कोई पहली बार अपनी मांग नहीं रखी है। तीन महीने पहले भी वे धरने पर बैठे थे। उनकी शिकायत भी कोई मामूली नहीं है। भारतीय कुश्ती महासंघ और उसके अध्यक्ष के खिलाफ यौनशोषण का आरोप ऐसा नहीं हो सकता, जिसे नजरअंदाज कर दिया जाए। अचरज की बात तो यह है कि तब इन पहलवानों को पूरे मामले की जांच-पड़ताल के बाद मुनासिब कार्रवाई का जो आश्वासन दिया गया था, वह किसी अंजाम तक पहुंचता नहीं दिख रहा।
पिछली बार जब ये लोग धरने पर बैठे थे, उस समय जानी-मानी बॉक्सर मैरी कोम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी। कहा जा रहा है कि उस समिति ने इसी महीने के पहले हफ्ते में अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी थी, लेकिन उस बारे में कोई औपचारिक सूचना उपलब्ध नहीं है। अगर सचमुच यह रिपोर्ट आ गई है तो उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया? चूंकि इस मामले में आरोप सार्वजनिक तौर पर लगाए गए हैं, इसलिए गोपनीयता बरतने का कोई मतलब नहीं बनता। और यदि इनके आरोप एकदम गलत हैं तो वो भी सामने आना ही चाहिए।
देशवासियों के सामने उन पहलवानों और महिला पहलवानों ने आकर शिकायत की है, जो देश का गौरव हैं। चाहे कुश्ती महासंघ हो या खेल मंत्रालय, वे समय पर इनकी शिकायत सुनने और उनका हल निकालने में नाकाम रहे हैं। तभी ये पहलवान जंतर-मंतर पर धरना देने को विवश हुए। इसलिए अब दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए। अगर इन पहलवानों की शिकायत गलत पाई गई तो वह बात भी सार्वजनिक की जानी चाहिए। लेकिन अगर उनकी शिकायत सही है तो दोषी व्यक्तियों के खिलाफ बिना देर किए कार्रवाई होनी चाहिए। चूंकि ऐसा होता नहीं दिख रहा, इसलिए खेल मंत्रालय समेत देश का पूरा खेल ढांचा संदेह के घेरे में आ रहा है। और, अब तो एक नाबालिग समेत सात महिला पहलवानों ने पुलिस में भी शिकायत दर्ज करा दी है।
हालांकि शिकायत मिल जाने के बाद भी पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की और इसके लिए भी पहलवानों को अदालत का रुख करना पड़ा। समझना चाहिए कि यह किसी खेल संगठन या उसके पदाधिकारियों से ही जुड़ा मसला नहीं है। इससे यह सवाल भी जुड़ा है कि हम खिलाडिय़ों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं? उनकी शिकायतों को कितनी गंभीरता से लेते हैं? दुनिया में देश का मान बढ़ाने वाले इन खिलाडिय़ों को इंसाफ पाने के लिए बार-बार ऐसे सडक़ पर उतरना पड़े, यह सरकार और प्रशासन के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।
खेल जगत पर यदि थोड़ा भी गंभीरता से नजर डालें तो अंदर कोई बहुत अच्छे हालात नहीं हैं। हर दूसरे खेल में राजनीति और राजनीतिक हस्तक्षेप साफ-साफ दिखता है। तैराकी, कुश्ती व कुछ अन्य खेलों में तो शोषण के मामले भी जब-तब सामने आते रहे हैं। एक तरफ राजनीतिक हस्तक्षेप, दूसरी ओर खेलों में एक रैकेट जैसा बन जाना, दोनों ही बहुत खतरनाक हैं। जितने भी खेल संगठन या खेल संघ बने हैं, वहां खासी राजनीति देखने को मिलती है। तमाम संगठनों पर तो नेताओं का ही कब्जा है और कई परदे के पीछे से चलाते हैं। वैसे, एक सच यह भी है कि अराजनीतिक संगठनों के हाल भी बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन कहीं न कहीं खेलों में हम जिस तरह से आगे बढ़ रहे हैं, हमारे यहां दूरदराज की प्रतिभाएं भी उभर कर सामने आ रही हैं, हमें गंदी राजनीति को तो साफ करना ही होगा। संगठनों की कार्यप्रणाली से लेकर चुनावों तक में पारदर्शिता होना चाहिए, जो कि कतई नहीं है। पता ही नहीं चल पाता कि कब किसके चुनाव हो गए, कहां -कौन काबिज हो गया?
फिलहाल जो मामला जंतर-मंतर पर उठाया गया है, उसका निराकरण होना बहुत आवश्यक है। यह एक खेल का नहीं, पूरे देश का मामला है। और जहां महिलाओं की शिकायत पर बिना जांच तक के एफआईआर दर्ज होती हो, वहां इतनी संख्या में युवतियां आरोप लगा रही हैं, पुलिस को शिकायत कर चुकी हैं, न कहीं एफआईआर का अता-पता और न ही जांच रिपोर्ट का। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिसके खिलाफ आरोप लग रहे हैं, उनका पुराना रिकार्ड आपराधिक ही रहा है। इसे कैसे छिपाएंगे? और सरकार आखिर जिद पर क्यों अड़ी है कि हटाना ही नहीं है?
-संजय सक्सेना

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