संपादकीय.. आओ होली मनाएं...राग द्वेष को दूर भगाएं, मन के विकारों को जलाएं


होली का मस्ती भरा त्यौहार कलुषित भावनाओं और अंतर्मन में निहित अहंकार आदि विकारों का दहन कर नेह की ज्योति जलाने और सभी को एक रंग में रंगकर बंधुत्व को बढ़ाने का संदेश देता है। यह बात और है कि हम अपने उन संस्कारों का ही दहन कर रहे हैं, जो हमें हमारी प्राचीनतम अक्षुण्ण संस्कृति ने दिए हैं। संभवत: बोलने और लिखने तक ही रह गए हैं हमारे आदर्श?
होली शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का सांकेतिक पर्व माना जाता है। वसंत ऋतु के बाद इस समय पतझड़ के कारण साख से पत्ते टूटकर दूर हो रहे होते हैं तो नई कौंपलों के रूप में प्रकृति के पांवों में पायल की छमछम सुनाई देती है। नई फसल आने का संदेश हमारी खुशियों में वृद्धि करता है। ऐसे में परस्पर एकता, लगाव और मैत्री को एक साथ एक सूत्र में बांधने का संदेशवाहक होली का त्योहार वातावरण को महुए की गंध की मादकता, पलाश और आम की मंजरियों की महक से चमत्कृत कर देता है। फाल्गुन मास की निराली वासंती हवाओं में संस्कृति के परंपरागत परिधानों में आन्तरिक प्रेमानुभूति सुसज्जित होकर चहुंओर मस्ती की भंग आलम बिखेरती है, जिससे दु:ख-दर्द भूलकर लोग रंगों में डूब जाते हैं। 
होली को लेकर धार्मिक कथाएं तो सभी ने सुनी हैं, लेकिन सही अर्थों में यह मस्ती भरा त्यौहार है, जो हमें मूल रूप से सामाजिक एकता और समरसता का पाठ पढ़ाता है। जब बात होली की हो तो ब्रज की होली को भला कैसे बिसराया जा सकता है। ढोलक की थाप और झांझतों की झंकार के साथ लोक गीतों की स्वर लहरियों से वसुधा के कण-कण को प्रेममय क्रीङ़ाओं के लिए आकर्षित करने वाली होली ब्रज की गलियों में बड़े ही अद्भुत ढंग से मनायी जाती है। फागुन मास में कृष्ण और राधा के मध्य होने वाली प्रेम-लीलाओं के आनंद का त्योहार होली प्रकृति के साथ जनमानस में सकारात्मकता और नवीन ऊर्जा का संचार करने वाला है। यकीनन ! होली के इस माहौल में मन बौरा जाता है। नायक और नायिका के बीच बढ़ रही इसी उत्तेजना, उत्कंठा और चटपटाहट को हिन्दी के कई रचनाधर्मी कवियों ने अपनी रचनाओं में ढाला है, वो वाकई अद्भुत है। 
अनुराग और प्रीति का त्योहार होली का भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य में सृजनधर्मा रचना प्रेमियों ने बखूबी से चित्रण किया है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन कवि सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद सहित सगुन साकार और निर्गुण निराकर भक्तिमय प्रेम और फाल्गुन का फाग भरा रस सभी के अंतस की अतल गहराईयों को स्पर्श करके गुजरा है। सूफी संत अमीर खुसरो ने प्रेम की कितनी उत्कृष्ट व्याख्या की है- ‘खुसरो दरिया प्रेम का, सो उल्टी वाकी धार। जो उबरा सो डूब गया जो डूबा हुआ पार।।’  
होली का त्योहार मन-प्रणय मिलन और विरह वेदना के बाद सुखद प्रेमानुभूति के आनंद का प्रतीक है। राग-रंग और अल्हड़पन का झरोखा, नित नूतन आनंद का अतिरेकी उद्गार की छाया, राग-द्वेष का क्षय कर प्रीति के इंद्रधनुषी रंग बिखेरने वाला होली का त्योहार कितनी ही लोककथाओं और किवदंतियों में गुंथा हुआ है। प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा जनमानस में सर्वाधिक प्रचलित है। बुराई का प्रतीक होलिका अच्छाई के प्रतीक ईश्वर श्रद्धा के अनुपम उदाहरण प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर सकी। बुराई भले कितनी ही बुरी क्यों न हो पर अच्छाई के आगे उसका मिटना तय है। 
आज हम देख रहे हैं कि धर्म के नाम पर होली या अन्य त्यौहार दिखाने के लिए तो खूब उत्साह के साथ मनाए जा रहे हैं, लेकिन कहीं भी मन के कलुषित विचारों का दहन होता नहीं दिखता। कहीं अहंकार, घृणा, ईष्र्या, द्वेष और अन्य बुराइयों का दहन करें, फिर देखें होली का असली आनंद। भगवान कृष्ण का प्रणय-प्रेम संदेश गोपिकाओं के लिए नहीं, वो तो सांकेतिक था, वो पूरे विश्व को प्रेम का संदेश देकर गए हैं। हमें उसका अनुसरण करना चाहिए। आज समाज बिखर रहा है। सबसे पहले तो परिवार ही बिखर रहा है। 
परिवार एकाकी हो रहे हैं। हम धर्म, संप्रदाय, जाति और उपजातियों में इस कदर बंटे हुए हैं कि समूह की भावना हमसे विरत होती जा रही है। आपसी वैमनस्य बढ़ रहा है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भावना बलवती होती जा रही है। होली में रंग लगाते हैं, गले मिलते हैं तो अंदर जैसे कटार चल रही होती है। यह होली का संदेश कतई नहीं हैं। इसका संदेश तो प्रेम है। इसका संदेश तो मिलजुलकर रहने का, खुशियां मनाने का है। इसका संदेश तो विश्व बंधुत्व का  है। और ये संदेश केवल लिखने, भाषणों तक सीमित रहने के लिए नहीं हैं। हम अपना सकें तो बेहतर होगा। आत्मसात करें तो बेहतर होगा। और फिर आएगा होली का असली आनंद। आओ, हिलमिल कर रंगों के इस पावन पर्व को मस्ती और प्रेम के साथ मनाएं। होली है...। 
-संजय सक्सेना 

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