संपादकीय... बिखरते ख्वाब, दरकते सपने


मध्यप्रदेश सहित देश के कई हिस्सों में बेमौसम तेज बारिश और ओलों ने तबाही मचा दी। खड़ी फसलें बिछ गईं। मौसम विभाग कह रहा है कि 3 मार्च से एक्टिव बारिश, ओले और तेज आंधी का सिस्टम अब खत्म हो गया है। इससे अगले तीन दिन तेज गर्मी वाले रहेंगे। कई शहरों में दिन का तापमान 35 डिग्री के पार पहुंचेगा, जबकि रात में तापमान 18 डिग्री को छू सकता है। परंतु कल यानि 12 मार्च से मध्यप्रदेश व कुछ और हिस्सों में नया वेस्टर्न डिस्टर्बेंस एक्टिव हो जाएगा, जिसका असर 14 मार्च से शुरू होगा। इससे 15 से 18 मार्च के बीच तेज बारिश, आंधी और ओले भी गिरेंगे।
समय और मौसम का कोई भरोसा नहीं होता। समय भी अनिश्चतता से घिरा रहता है और मौसम भी। हिंदुस्तान के हर कोने में मौसम तेज़ी से बदल रहा है। पहले इसका समय तय होता था। इतने दिन ठण्ड पड़ेगी, इतने दिन बारिश और इतने ही दिन गर्मी। लेकिन अब चूँकि मनुष्य ने अपनी नीतियाँ छोड़ दी हैं, इसलिए पृथ्वी, आकाश, जल और इनसे जुड़ा मौसम भी अपना स्वभाव बदलने को विवश है। ठण्ड जाने को है। गर्मी आने को है और ऐसे में कटने को तैयार खड़ी फसलों पर बारिश आ पड़ी। ओले भी गिर गए। किसान तड़प रहा है। फसलें खेतों में औंधी होकर किसानों का मुँह ताक रही हैं। 
ख़ैर, ऐसा तो होता रहता है। पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन का दौर चल रहा है। लेकिन केरल के हाल देशभर से अलग हैं। और बुरे भी। वहाँ अभी तक बारिश से लोग परेशान थे। बारिश ख़त्म हुए ज़्यादा दिन हुए नहीं थे कि गज़़ब की गर्मी आ गई। गर्मी भी ऐसी कि लू के थपेड़े पड़ रहे हैं। सरकार द्वारा हीट स्ट्रोक्स के अलर्ट जारी किए जा रहे हैं। दरअसल अब हीट इंडेक्स जैसी एक नई तकनीक आई है। इसके ज़रिए मौसम विभाग यह पता लगा लेता है कि गर्मी जितनी डिग्री बताई जा रही है, वास्तव में वह एहसास कितनी डिग्री का दे रही है। इसके अनुसार केरल में तापमान तो 32 डिग्री ही है लेकिन वो एहसास करवा रहा है 54 डिग्री का। मतलब भर गर्मी में जैसे जैसलमेर तपता है, उतना अभी से केरल तप रहा है। 
और काटो पेड, नदी-नालों को पूर दो, मिट्टी और सीमेंट से। हरे-भरे जंगल काट कर कांक्रीट के जंगल तान दो। हरियाली मिटाओ, कॉलोनियाँ काट दो और करोड़ों- अरबों कमाओ। कौन रोक रहा है? लेकिन आने वाली पीढ़ी जब कोई सवाल करे तो अपने होंठ सी लेना। क्योंकि हमारे पास कोई जवाब तो होगा नहीं।  हम बताएंगे कि हमारे लालच ने पूरी दुनिया की जलवायु बदल दी? हम बताएंगे कि अपने लालच में विकास के नाम पर हमने प्रदूषण के पहाड़ तान दिए?  
एक जमाना था जब हममें ज़्यादा लालच नहीं था। चाँद सर उठाता था तो हल्की सुस्त- सी हवा, शाख़- शाख़ जाकर नन्हे पौधों को जगाती थी। फसलों के दाने-दाने में दूध भरने लगता था। नीले- काले आसमान पर सितारे जब चमकते थे, दौडऩे लगते थे सारे दरिया समन्दरों की तरफ़। अन्धे आँखों में भी रोशनी लौट आती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो हवाएँ भी गरम तलवारों के झोंके लेकर आती हैं। अब इन हवाओं के हाथ भी गुस्ताख़ हो चले हैं। काट डालते हैं नन्हें- नन्हे सपनों को। नोंच लेते हैं आँचल। सपने बिखरने से डरते रहते हैं। 
तो अब हम अपने सपनों को बदल लें, हारर फिल्मों की तरह कर लें, अपने सपनों और ख्वाबों को? जिसमें हर चीज डरावनी ही हो। उन पंक्तियों को पुस्तकों का हिस्सा ही बनाकर छोड़ दें, जिनमें लिखा हो-किसान अपनी फसलों को देखकर ऐसे प्रसन्न होता है, जैसे मां अपने बच्चे को किलकारी मारते हुए देखती है। फसल को किसान बच्चों की तरह ही तो पालता है। लेकिन आज उसके नाम पर भले ही राजनीति होती है, लेकिन उसका कष्ट कोई महसूस नहीं करता। आज जलवायु परिवर्तन को लेकर विश्व स्तर के सम्मेलन भी हो रहे हैं, खूब बातें होती हैं। भाषण होते हैं। बयान आते हैं। लेकिन यथार्थ यह है कि एक-दूसरे पर दोषारोपण करके इतिश्री कर ली जाती है। हम खुद सुधरने को तैयार नहीं हैं। अपने गिरेबान में नहीं देखते। 
हिमालय की तराई में ग्लेशियर पिघलने की गति बढ़ रही है...। उत्तराखंड में मकान दरक रहे हैं..। जमीनें खिसक रही हैं..। खबरें आती हैं। कुछ दिन में मामला ठंडा हो जाता है। या कर दिया जाता है। लेकिन जिन कारणों से यह सब हो रहा है, उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। पहाड़ केवल हिमालय क्षेत्र में नहीं, मध्यप्रदेश जैसे राज्य में भी बर्बाद किए जा रहे हैं। सीना केवल गंगा मैया का नहीं, मां रेवा का भी छलनी हो रहा है। नदियों को हम मां मानते रहे हैं, लेकिन उनकी दुर्दशा पर आज हंस रहे हैं। वो हमें बेजान लगती हैं। पर हैं नहीं। हम प्रकृति को बेजान मानकर अपना गुलाम समझने लगे हैं, यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। आज भी समय है, विकास और लालच कम कर दें। भुगतना तो हम सबको ही पड़ रहा है और पड़ेगा, आज नहीं कल। 
-संजय सक्सेना 

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