संपादकीय...खटिया पर शव और दस किलोमीटर का रास्ता.. जिम्मेदार कौन?



यह पहली घटना नहीं है। प्रदेश में आए दिन कहीं बीमारों को एंबुलेंस सुविधा नहीं मिल पा रही है तो कहीं शव को खटिया पर रखकर ले जाने की घटनाएं सामने आ जाती हैं। सिंगरौली में मौत के बाद आदिवासी युवती के शव को घर ले जाने के लिए एम्बुलेंस तक न मिलने का मामला सामने आया है। निराश होकर परिजनों को खाट पर पैदल 10 किलोमीटर तक शव ले जाना पड़ा। वो तो एक समाजसेवी ने रास्ते में अपने वाहन में शव रखकर उन्हें गांव तक छोड़ा, नहीं तो और लंबी दूरी पैदल ही तय करनी पड़ती। 
प्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाओं और स्वास्थ्य सेवाओं को शर्मसार करती यह तस्वीर उस सिंगरौली जिले की है, जो प्रदेश को सर्वाधिक टैक्स देने वाले जिलोंं की सूची में सबसे ऊपर माना जाता है। हालांकि मामला सीधी जिले का है, लेकिन जिस अस्पताल में महिला को ले जाना पड़ा, वो सिंगरौली जिले में है और इस गांव से अन्य सामुदायिक केंद्र के मुकाबले पास पड़ता है। भूमिमाड़ थाना क्षेत्र के केसलार गांव के आदिवासी परिवार की युवती शांति सिंह को बीमारी चलते सिंगरौली जिले के सरई थाना क्षेत्र के सरई सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले आए। जहां इलाज कराने के बाद युवती के परिजन उसके नाना के यहां ले गए। गुरुवार की सुबह युवती की तबीयत अचानक बिगड़ी। कुछ देर बाद ही उसकी मौत हो गई।
मौत के बाद युवती के परिजनों ने अस्पताल प्रबंधन से शव को घर ले जाने के लिए एम्बुलेंस की मांग की, लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने शव ले जाने के लिए एम्बुलेंस मुहैया नहीं कराया। कई बार सरई थाना प्रभारी से भी शव वाहन के लिए परिजनों ने संपर्क किया। थाना प्रभारी ने आश्वासन दिया, लेकिन कई घंटे बीत जाने के बाद भी शव वाहन व्यवस्था नहीं करा सके। गरीब आदिवासी परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह प्राइवेट वाहन कर शव को ले जा सके। आखिर थक हारकर मृतिका शांति सिंह के परिजनों ने खाट पर पैदल शव को घर ले गए। उसके परिजन खाट पर लादकर ले जा रहे थे। 10 किलोमीटर की दूरी तय कर चुके थे, इसी बीच समाजसेवी प्रेम भाटी सिंह की नजर पड़ी तो उन्होंने शव को खाट पर ले जाने की घटना की पूरी जानकारी ली। इसके बाद अपने निजी वाहन से शव को घर तक पहुंचाया।
इसका दुखद पहलू यह है कि सिंगरौली जिले में यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं घटित हो चुकी हैं। सिंगरौली भले ही आदिवासी बहुल जिला है, लेकिन यह प्रदेश का सबसे बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में शुमार है। यहां विकास के बहुत बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर भी दावों और बयानों का ढेर लग जाता है। लेकिन प्रदेश के दूरस्थ इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली की कोई न कोई तस्वीर शर्मसार कर ही देती है। आदिवासी इलाकों में एक तो आर्थिक हालात बहुत सुधरे नहीं हैं, दूसरे वहां आवागमन के साधनों की भी बेहद कमी है। 
स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक कई गांवों से दस-बीस किलोमीटर तक की दूरी पर हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की दूरी तो और अधिक हो जाता है। यही नहीं, इन प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में कहीं चिकित्सक नहीं मिलते तो कहीं दवाओं को अभाव रहता है। सरकार कहती है कि वह भरपूर बजट स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए देती है। हर बार इस बजट में बढ़ोत्तरी भी की जाती है, लेकिन सिंगरौली जैसी घटनाएं सुविधाओं सहित तमाम दावों को खोखला साबित करती रहती हैं। दवाओं और एंबुलेंस की  कमी नहीं, अधिकांश इलाकों में अभाव ही बना रहता है। इसमें गलती है किसी की या मजबूरी, यह नहीं कहा जा सकता। सरकार के दावों और आंकड़ों को देखें तो लगता है, लापरवाही और उदासीनता के चलते यह सब हो रहा है। यदि ऐसा है, तो सख्त कार्रवाई की अपेक्षा तो रहेगी ही। कम से कम हर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक से अधिक एंबुलेंस की व्यवस्था हो, डाक्टर और अन्य स्टाफ को लेकर भी खूब बातें होती रहती हैं। दवाओं के लिए कौन जिम्मेदार है, यह भी तय तो होना ही चाहिए। 
कुछ भी करें, समाज भी आगे आए, कम से कम ऐसी घटनाएं तो नहीं होना चाहिए कि शव को लेकर लोगों को मीलों पैदल चलना पड़े। कोई खटिया पर ले जा रहा है, तो कोई साइकिल पर। कोई चादर में बांधकर लटका कर ले जाते हुए भी देखा गया। ऐसा कैसा विकास? ऐसा कैसा विकसित प्रदेश? 
-संजय सक्सेना


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