संपाकीय... पर्चा लीक बनाम एमपी का भ्रष्ट सिस्टम


मध्यप्रदेश भी बड़ा अजीब सा राज्य है। यहां जो हो जाए, कम ही है। व्यापमं हुआ, बड़े मगरमच्छ आज भी तालाब चट कर रहे हैं, कुछ छोटे फंसे और कई मासूमों की तो जान ही चली गई। व्यापमं का नाम बदल दिया गया। हमारा माध्यमिक शिक्षा मंडल यानि एमपी बोर्ड भी कम नहीं है। यहां भी वो सब कुछ हुआ, जो हो सकता है। फर्जी अंकसूचियां बनाने का रैकेट तक चला, लेकिन उसमें भी असल किरदार तो पकड़े ही नहीं गए। छोटे किरदारों पर हंटर चल गया। शायद यही कारण है कि जब-तब प्रदेश में घोटालों का अनावरण होता रहता है। अनावरण इसलिए, क्योंकि परदे के पीछे तो सब कुछ होता ही है।
हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफार्म टेलीग्राम पर बोर्ड के पर्चे वायरल होने की खबरें आईं। ये एमपी बोर्ड की 10वीं, 12वीं की परीक्षा के पर्चे हैं। पूरे सिस्टम पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, मामला विधानसभा तक भी पहुंच गया। एमपी बोर्ड का दावा है कि पेपर छात्रों को बंटने से पहले तक चेयरमैन, सचिव भी इसे नहीं देख सकते। हकीकत यह है कि परीक्षा से पहले ही पेपर वायरल हो रहे हैं।  तो फिर सवाल उठेगा ही कि आखिर सिस्टम में खामी कहां है? 
वैसे तो पूरी दाल ही काली है। हर जगह, हर विभाग में, हर शाखा में एक नहीं, दो-चार किरदार मिल जाएंगे, लेकिन दिक्कत यह है कि जब उच्च स्तर पर सहमति हो, या फिर घोर उदासीनता-लापरवाही, तब ही ऐसी घटनाएं होती हैं। देखा जाए तो शिक्षकों के द्वारा ही पर्चे तैयार किए जाते हैं और इसकी प्रक्रिया पूरे सात महीने पहले शुरू कर दी जाती है। जिस दिन पेपर शुरू होता है उसके आधा घंटे पहले सेंटर पर सीलबंद लिफाफा खोला जाता है, जिसमें पर्चा होता है। कायदे से तो जो शिक्षक पर्चे सैट करने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं, उन्हें ही नहीं पता होता कि उन्होंने जो पर्चा सैट किया, वही परीक्षा में आ रहा है या उसे बदल दिया गया है। 
वैसे तो इसके लिए बोर्ड में पूरी शाखा होती है, गोपनीयता की जिम्मेदारी इसी की होती है, पर इस पूरे चैनल में सबसे अहम किरदार केंद्राध्यक्ष और सहायक केंद्राध्यक्ष होता है। यही कारण है कि विभाग द्वारा निलंबित किए गए 9 लोगों में केंद्राध्यक्ष और सहायक केंद्राध्यक्ष ही शामिल हैं। थाने से सेंटर तक पेपर ले जाने का जिम्मा इन्हीं का होता है। सोलह साल पहले कुछ जिलों में केंद्र अध्यक्ष द्वारा गलती से बाद में होने वाला पेपर पहले बांट दिया गया था। इसके बाद बड़ा बदलाव किया गया। इसके तहत बोर्ड के बजाय जिलों में रिजर्व पेपर के सेट रखवाने का निर्णय लिया गया। इसके बावजूद पेपर लीक होने पर हैरत होती है। पेपर सेट करने संभाग स्तर पर शिक्षकों को बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। हर संभाग से विषयवार 2-2, 3-3 शिक्षकों को पेपर तैयार करने मॉडरेटर के तौर पर चुना जाता है। पेपर बनाने के लिए इन्हें भोपाल बुलाया जाता है। ये यहीं बोर्ड के रेस्ट हाउस में ही रुकते हैं। ये शिक्षक हिंदी और इंग्लिश वर्जन के पेपर के साथ-साथ मॉडल आंसर भी तैयार करते हैं। यह काम गोपनीय कक्ष में होता है। मॉडरेटर पेपर के पांच सेट तैयार करते हैं।
मॉडरेटर द्वारा तैयार पेपर को सेट करने विषय विशेषज्ञ बुलाए जाते हैं। ये गलतियां सुधारकर सील बंद लिफाफे में पेपर पैक कर देते हैं। इन 5 से कोई भी सिर्फ दो सेट प्रिंट के लिए प्रिंटर को भेजे जाते हैं। ये पेपर बोर्ड के चेयरमैन, सचिव या अन्य अधिकारी भी नहीं देख सकते। परीक्षा के तीन से चार माह पहले पेपर छपकर तैयार हो जाते हैं। जिस दिन पेपर होते हैं, उससे तीन या चार दिन पहले सील बंद लिफाफे में जिला स्तर पर चुनी गई समन्यवक संस्था में बोर्ड के अधिकारी ये बॉक्स लेकर पहुंचते हैं। इसी संस्था से पेपर केंद्राध्यक्ष को दिए जाते हैं। जिस दिन पेपर होता है उसके डेढ़ घंटे पहले केंद्राध्यक्ष, सहायक केंद्राध्यक्ष, डीईओ द्वारा नियुक्त शिक्षक एवं कलेक्टर द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि की उपस्थिति में थाने के लॉकर से बॉक्स का ताला खोलकर पेपर के बंच निकालते हैं। थाने में एंट्री होती है। इस दौरान डीईओ प्रतिनिधि, कलेक्टर प्रतिनिधि एवं संबंधित थाना प्रभारी के दस्तखत होते हैं। 
केंद्राध्यक्ष द्वारा थाने से सेंटर पर ले जाए जाते हैं, इसके बाद सेंटर पर पेपर शुरू होने के आधा घंटे पहले केंद्राध्यक्ष और एक परीक्षार्थी के दस्तखत होने के बाद ही पेपर के पैकेट खोले जाते हैं। सेंटर पर पेपर शुरू होने के तय समय से पांच मिनट पहले ड्यूटी पर मौजूद शिक्षक द्वारा पेपर परीक्षार्थियों को बांटे जाते हैं। निश्चित तौर पर इस पूरी प्रक्रिया में शामिल लोगों में से ही कोई या कुछ लोग पेपर लीक होने की साजिश में शामिल हो सकते हैं। सभी तो अपराधी नहीं होते और न ही हर व्यक्ति गलत काम करता है। कुछ लोगों के कारण ही ये सब होता है। गोपनीयता भंग कैसे हो जाती है? जिम्मेदारियां तो तय होना ही चाहिए। वैसे भी यदि बोर्ड अध्यक्ष और सचिव पर्चा लीक के जिम्मेदार नहीं हैं, तो भी इनकी कुछ तो जिम्मेदारी होगी ही। क्या इन्हें केवल साइन करने के लिए तैनात किया जाता है? क्या केवल वेतन लेना ही इनकी ड्यूटी है? आखिर संस्था में कहीं भी लूप होल होता ही क्यों है? निचले स्तर पर कार्रवाई करके इतिश्री करना ही शायद सबसे बड़ी गलती है। इसी कारण तो हर बार घोटाले हो जाते हैं। फिर भी बड़ी सूक्ष्म जांच की जरूरत है, और पूरी निष्पक्षता के साथ। 
-संजय सक्सेना 

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