संपादकीय... होने दो मर्यादाएं तार तार...
देश में संसदीय परंपराओं पर संकट सा दिख रहा है। लोकसभा-राज्यसभा हो या राज्यों की विधानसभा, सत्र के दौरान मुद्दों पर बहस का दौर जैसे खत्म ही हो गया है। हंगामा, प्रदर्शन और बीच में हां की जीत..सब कुछ पारित। सदन की कार्यवाही स्थगित। विडम्बना यह है कि इसके लिए सभी एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि कहीं न कहीं जिम्मेदारी सबकी होती है। सत्तापक्ष हो या विपक्ष, दोनों की तरफ से मुद्दों पर बहस की पहल नहीं होती।
बात करें मध्यप्रदेश विधानसभा की। इन दिनों बजट सत्र चल रहा है। होली के पहले इसके दो दिन सिर्फ विधायकों के हंगामे के कारण खराब हो चुके हैं। इस हंगामे के चलते 220 से 310 तक सवालों के जवाब बनने के बावजूद सार्वजनिक नहीं हो पाते। आज के एक अखबार की खबर पर भरोसा करें तो सदन में पूछे गए एक सवाल का जवाब तैयार करने में औसत 50 हजार रुपए तक का खर्च आता है। और जिन सवालों के जवाब जुटाने के लिए गांवों से जानकारी मंगाई जाती है, इनका खर्च 75 हजार से एक लाख रु. तक चला जाता है।
एक दिन के प्रश्नकाल पर औसतन 50 लाख रुपए तक खर्च बताया जाता है। ये राशि विधानसभा की एक दिन की बाकी कार्यवाही के कुल खर्च से भी ज्यादा है, क्योंकि सदन की हर घंटे की कार्यवाही 2.50 लाख रुपए की पड़ती है। यदि 5 घंटे सदन चला तो कुल खर्च 12.50 लाख तक आता है। बजट सत्र के दौरान 2500 से ज्यादा सवाल पूछे जाना है। 2019 से अब तक ऐसे 500 सवाल पूछे जा चुके हैं, जिनमें एक ही जवाब मिला- जानकारी एकत्रित की जा रही है। यदि इसी बजट सत्र की बात करें तो 5 दिनी कार्रवाई में 28 फरवरी को 224, 1 मार्च को 227, 2 मार्च को 230, 3 मार्च को 307 सवाल पूछे गए।
किसानों की कर्जमाफी को लेकर तीन साल में 100 से ज्यादा सवाल पूछे गए। लेकिन, सभी में सिर्फ एक ही जवाब दिया गया- जानकारी जुटा रहे हैं। व्यापमं घोटाले की जांच 2013 में चल रही थी जो 2015 में बंद कर दी गई। इस बारे में अब तक 80 सवाल पूछे गए, जिसमें हमेशा कोर्ट का हवाला देकर जवाब खत्म कर दिया गया। 2017 में हुए मंदसौर गोलीकांड के बाद 2018 में न्यायिक आयोग गठित हुआ था, तब से अब तक 100 से ज्यादा सवाल पूछे जा चुके हैं। दो सरकारें बदल चुकीं, लेकिन अब तक इसमें एक ही जवाब मिला- कार्यवाही प्रक्रियाधीन है।
कहीं न कहीं प्रशासन के कक्षों में भी प्रश्नों को लेकर लापरवाही दिखती है। या फिर ऊपर से दबाव के चलते उत्तर जानबूझकर नहीं दिए जाते। जो भी हो, उत्तर नहीं आता और सदन की गरिमा को झटका लगता ही है। प्रश्नकाल हो या अन्य कार्यवाही, न तो जनहित के मुद्दों पर बात होती है। न ही विधेयकों से लेकर बजट पर चर्चा हो पाती है। बजट जितना महत्वपूर्ण होता है, उससे महत्वपूर्ण विभागों को मिलने वाले आवंटन और वहां होने वाले खर्चों पर चर्चा को माना जाता है। जनता को पता ही नहीं चल पाता कि सरकार किस पर कितना खर्च कर रही है और वास्तव में कितना खर्च होना चाहिए। किन योजनाओं के हिस्से का खर्च किन दूसरी योजनाओं में खर्च हो गया, ये भी नहीं मालूम चल पाता। और सदन में चर्चा का उद्देश्य क्या है?
लोकतंत्र में विधानसभाओं और संसद का अपना अलग महत्व है। यदि इनका औचित्य नहीं रह जाएगा तो फिर लोकतंत्र बचा ही कहां? कैसे हम अपने आप को लोकतंत्र कह पाएंगे? कोई मुद्दों पर बोलता है या नहीं, यह कौन तय करेगा? यदि विपक्ष विरोध नहीं करेगा, तो उसका अस्तित्व भी खत्म हो जाएगा। लेकिन विरोध का तरीका क्या होना चाहिए, यह भी सवाल तो है। और सत्तापक्ष की जिम्मेदारी कुछ अधिक होती है, लेकिन लगता नहीं कि सत्तापक्ष भी अपनी जिम्मेदारी सही तरह से निभा पा रहा है।
हर मुद्दे पर सदस्यों का निलंबन, जो जानकारी सदन में ही दी गई है, उसकी फिर से चर्चा पर रोक, सदन की ही जानकारी पटल पर रखने की मनाही, उसी जानकारी को पूरी तरह से नकारा जाना, यह भी तो ठीक नहीं। फिर विपक्ष हंगामा नहीं करेगा तो क्या करेगा? लेकिन विपक्ष भी शायद अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा पा रहा है। कमी दोनों ओर से है, पर कोई मानने के लिए तैयार ही नहीं है। इसी खींचतान में लोकतंत्र के मंदिरों में तमाशा हो रहा है, जनता मूक दर्शक बनी हुई है। चुनाव आते ही उसे मूल मुद्दों से भटका कर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं। जो जितना भ्रमित कर ले, उसे उतनी ही सीटें मिल जाती हैं। जय लोकतंत्र।
-संजय सक्सेना
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