संपादकीय....जीडीपी का गिरना...
इस समय पूरी दुनिया अनचाहे आर्थिक संकट की कगार पर खड़ी दिखाई दे रही है। हालांकि हम आंकड़ों में तो कम से कम कई देशों की आर्थिक स्थिति से बेहतर दिखाई दे रहे हैं, फिर भी मौजूदा वित्तीय वर्ष 2022-23 की तीसरी तिमाही यानि अक्टूबर से दिसंबर में जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों का कम होना चिंताजनक भी है और विचारणीय भी। पिछले साल के मुकाबले यह वृद्धि आधी ही है, सो हमें इस तरफ कुछ ज्यादा ही ध्यान देना होगा।
आंकड़ों की बात करें तो देश में इस तिमाही में ग्रोथ मात्र 4.4 प्रतिशत रही, जबकि दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर की अवधि में जीडीपी में 6.3 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी और पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 13.5 फीसदी थी। तीसरी तिमाही में इसमें कुछ कमी का अनुमान लगाया जा रहा था, लेकिन विशेषज्ञों में लगभग सर्वसम्मति थी कि गिरकर भी यह 4.7 फीसदी तक रहेगी।
तीसरी तिमाही के आंकड़े कम रहने का सीधा मतलब यह माना जा सकता है कि इस पूरे वित्तीय वर्ष के लिए जीडीपी में बढ़ोतरी के जो अनुमान लगाए गए थे, उनका पूरा होना मुश्किल हो जाएगा। एकदम दो या तीन गुना वृद्धि आसान नहीं होगी। हालांकि सालाना 7 प्रतिशत बढ़ोतरी के इस अनुमान में अभी कोई संशोधन नहीं किया गया है। लेकिन अगर इसे पूरा किया जाना है तो वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही यानि जनवरी-मार्च 2023 के दौरान अर्थव्यवस्था को कम से कम 5.1 प्रतिशत की दर से बढऩा होगा। और मौजूदा परिस्थितियों में यह लक्ष्य हासिल करना खासा चुनौतीपूर्ण लगता है। जीडीपी की रफ्तार में लगातार दो तिमाहियों की यह कमी ऐसे समय आई है, जब ग्लोबल स्लोडाउन और मंदी की आशंकाओं के बीच भारत को एक ब्राइट स्पॉट यानी चमकदार बिंदु के रूप में रेखांकित किया जा रहा है।
इस धीमी रफ्तार का बड़ा कारण महंगाई काबू करने के लिए ब्याज दरों में लगातार की गई बढ़ोतरी को प्रमुख माना जा रहा है। इसका पहले ही अनुमान लगाया गया था। मौजूदा वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य में इस नीति के तत्काल पलटने के आसार भी नहीं दिख रहे हैं, क्योंकि महंगाई का दबाव अभी भी बना हुआ है। दूसरी बात यह कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का सिकुडऩा जारी है, जबकि हम आत्मनिर्भर देश की बात कर रहे हैं और एमएसएमई सेक्टर में अनेक संभावनाओं का दावा किया जा रहा है। इस तिमाही में इस सेक्टर की बढ़ोतरी साल-दर-साल आधार पर 1.1 प्रतिशत दर्ज की गई, जो उपभोक्ता मांग की कमजोरी को दर्शाता है। एक अच्छी बात यह है कि कृषि क्षेत्र की ग्रोथ अच्छी बनी हुई है। तीसरी तिमाही में यह 3.7 प्रतिशत दर्ज की गई, जबकि पूरे वित्त वर्ष के लिए यह अनुमान 3.3 प्रतिशत का है।
इसके बावजूद यहां ध्यान रखना जरूरी है कि यह अनुमान इस धारणा पर आधारित है कि रबी की फसल जबर्दस्त होगी, यानी तापमान बढऩे जैसे किसी कारक का प्रतिकूल प्रभाव नहीं होगा। यह धारणा कितनी सही है, इसका पता तभी चलेगा जब फसल कटने का वक्त आएगा। वैसे तापमान को लेकर कोई सही भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। फसल बेहतर हो सकती है, लेकिन सरकार की ओर से फसलों के लिए कोई विशेष पैकेज नहीं दिया जा रहा है और कई राज्यों में किसानों को समय पर खाद- बीज तक उपलब्ध नहीं कराया जाता है।
देखा जाए तो महामारी के बाद से ही अर्थव्यवस्था में निवेश का काम मुख्यतया सरकार की ही ओर से हो रहा है, लेकिन जब तक निजी क्षेत्र की ओर से इसमें बढ़ोतरी नहीं होती, तब तक ग्रोथ में मजबूती नहीं आएगी। यह तभी होगा, जब कंस्यूमर डिमांड में रिकवरी हो। यानि उपभोक्ता की मांग बढ़े। सबसे बड़ी बात यह कि मौजूदा हालात में ब्याज दरों में कमी की कोई उम्मीद कम से कम फिलहाल नहीं की जा सकती। इसी वजह से वित्त वर्ष 2024 में ग्रोथ 2023 के मुकाबले कम रहने का अनुमान लगाया जा रहा है।
यहां सबसे बड़ी बाधा बैंक लोन की ब्याज में लगातार वृद्धि है, और एक सच्चाई यह भी है कि हमारे देश में लोग खरीदारी भी कर्ज लेकर ही करते हैं, क्योंकि उनकी आमदनी उनकी मांग या जरूरत के हिसाब से नहीं है। सरकार इस बात पर खुश होती रहती है कि देश में मध्यमवर्गीय लोगों की आय बढ़ रही है, जबकि न तो मध्यमवर्ग की आय बढ़ रही है और न ही उन्हें कर्ज से राहत मिल पा रही है। आम आदमी के आय के स्रोत कतई नहीं बढ़ रहे हैं, अमीर अधिक अमीर हो रहे हैं, गरीब और गरीब। जब तक इस खाई को नहीं पाटा जाता और सही मायने में मध्यम वर्ग को उचित रोजगार नहीं मिलता, तब तक देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं माना जा सकता।
-संजय सक्सेना
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