संपादकीय: चुनाव आयोग ने भी साबित कर दिया.... सरकार की जेब में...!
क्या वास्तव में चुनाव आयोग से लेकर कुछ और संस्थाएं सरकार के इशारे पर ही काम कर रही हैं? इनकी कार्यप्रणाली पर आखिर लगातार विपक्ष आरोप क्यों लगा रहा है? क्यों विपक्ष इतना हमलावर है? हाल में आया चुनाव आयोग का एक और फैसला जहां विपक्ष के गले नहीं उतर रहा है, वहीं सरकार को लेकर एक और वाक्य चल रहा है - हमसे पंगा महंगा पड़ेगा। फिर एक सवाल और उठ रहा है कि क्या पार्टी बड़ी है या उससे टूटकर सत्ता बनाने वाले जन प्रतिनिधि?
हालांकि अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में फिर जाएगा, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि वहां चुनाव आयोग का फैसला पलटा जाएगा। फिलहाल तो एक विभाजन ऐसा हो गया कि पार्टी से उसका मूल चुनाव चिन्ह छिन गया और उससे बगावत करके गए गुट को चुनाव आयोग ने मूल पार्टी का दर्जा दे दिया। यह हुआ है शिवसेना के साथ। चुनाव आयोग ने शिव और सेना को अलग कर दिया। यानी आधिकारिक तौर पर उसके दो टुकड़े कर दिए। लगभग तैंतीस साल पुराना था शिवसेना और भाजपा का गठबंधन। एक महाराष्ट्र ही ऐसा राज्य है जहां भाजपा की सहयोगी होने के बावजूद शिवसेना हमेशा बड़े भाई की भूमिका में ही रही थी।
विधानसभा चुनावों में हमेशा ज़्यादा सीटों पर शिवसेना ही लड़ा करती थी। लेकिन शुक्रवार को चुनाव आयोग के एक फ़ैसले ने वर्षों की सकारात्मकता पर आखिरी कील ठोक दी। चुनाव आयोग का हैरत में डालने वाला फ़ैसला आया। उसने एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना को ही असल शिवसेना मान लिया और चुनाव चिन्ह -तीर कमान भी शिंदे- सेना को ही सौंप दिया।इसका सीधा सा मतलब ये है कि उद्धव सेना को अब अलग चिन्ह पर चुनाव लडऩा पड़ेगा। हालाँकि विवाद अभी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है लेकिन चुनाव चिन्ह का फ़ैसला आखिर चुनाव आयोग को ही करना था सो उसने कर दिया। उद्धव ठाकरे और संजय राउत आयोग के इस फ़ैसले को केंद्र सरकार की दादागिरी बता कर कोस रहे हैं। कह रहे हैं कि देश में लोकतंत्र को दबाया जा रहा है।
मूल शिवसेना हाथ से चले जाने का दुख क्यों नहीं होगा? तभी कहा जा रहा है कि सरकार अपने और अपनों के पक्ष में फ़ैसले करवाने के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं चूक रही है। उद्धव कहते हैं कि अगर चुने हुए जनप्रतिनिधि ही पार्टी के बारे में फ़ैसले करने लगे तो संगठन का महत्व आखिर क्या रह जाएगा? उधर शिंदे गुट आयोग के इस फ़ैसले को लोकतंत्र की जीत बता रहा है। सत्य का परचम फहराने वाला फ़ैसला निरूपित कर रहा है। सत्य का यह परचम क्या लोकतंत्र के हित में होगा? क्या इससे भारत में लोकतंत्र की आत्मा बची रह पाएगी?
चुनाव आयोग के इस फैसले ने दो बातें साफ कर दी हैं। एक तो यह कि सरकार से पंगा मत लो। और दूसरी ये, कि पार्टी से जब चाहे नाता तोड़ लो। सरकार का मजा लो। संगठन को आज के पहले मूल माना जाता था। खुद दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का तमगा लगाने वाली भाजपा अपने संगठन पर नाज कर रही है। लेकिन यदि भाजपा से एक साथ कई सांसद या विधायक टूट कर दूसरी पार्टी बना लेते हैं, तब क्या होगा? क्या असली भाजपा वो कही जाएगी, जिसके जन प्रतिनिधि सत्ता के लालच में बिके? यदि चुनाव आयोग का शिवसेना के मामले में निर्णय सही है तो, अब पार्टियों में टूट-फूट का दौर और तेज होना तय है। संगठन को लात मारकर कभी भी उसी संगठन के कारण जनता से चुने गए प्रतिनिधि जनता को धोखा देकर दूसरी पार्टी बना लेंगे। और संगठन का महत्व ही मानो खत्म हो जाएगा। सवाल यह भी उठता है कि फिर चुनाव में बी फार्म का क्या महत्व रह जाएगा, जिसमें संगठन के अध्यक्ष के हस्ताक्षर होते हैं? अध्यक्ष कभी भी दूसरा बन जाएगा। बलिहारी चुनाव आयोग और उसमें बैठकर निर्णय लेने वालों की। कहीं तो लगे कि लोकतंत्र के कुछ मानक भी होते हैं। यहां तो सब धान बाईस पसेरी। बस सरकार की हां में हां मिलाते जाओ। फिर अच्छे-अच्छे पद, राज्यसभा या लोकसभा के टिकट पा लो। उम्र अधिक हो जाए तो राज्यपाल बन जाओ। आयोगों और अन्य संस्थाओं में बैठे लोगों का लक्ष्य बस इतना ही रह गया है?
-संजय सक्सेना
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