-संजय सक्सेना
हम एक बीमारी से बचने के लिए दवा लेते हैं और दूसरी को गले लगा लेते हैं। रक्त चाप और शुगर के रोगों की दवाओं को लेकर स्वास्थ्य जगत में लगातार शोध हो रहे हैं, क्योंकि इनके लगातार सेवन से किडनी व कुछ अन्य अंगों पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। लेकिन हम एंटीबायोटिक दवाएं इस कदर लेने लगे हैं कि इससे न केवल हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो रही है, अपितु कुछ नई बीमारियां भी हम मोल ले रहे हैं।
ज्यादा मात्रा में एंटी एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन करने को लेकर आई एक रिपोर्ट हम सबके लिए बेहद जरूरी है और खतरनाक भी। 40 की उम्र के बाद एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन पेट की गंभीर बीमारी का कारण बन सकता है। एंटीबायोटिक दवाएं खाने से आंतों से संबंधित बीमारियों का खतरा काफी बढ़ जाता है। यह दावा गट जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च में किया गया है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने करीब 61 लाख डेनिश लोगों के स्वस्थ्य डेटा का विश्लेषण किया। जिसमें पता चला कि जिन लोगों ने किन्हीं वजहों से लगातार एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया, उनमें आईबीडी यानि इन्फ्लेमेटरी बाउल डिसीज का खतरा उन लोगों की तुलना में काफी ज्यादा बढ़ गया था, जिन्होंने एंटीबायोटिक दवाएं नहीं ली थीं।
शोधकर्ताओं ने 2000-2018 के बीच 10 से 60 वर्ष के 61 लाख लोगों पर अध्ययन किया। इनमें से 55 लाख को चिकित्सकों ने एंटीबायोटिक दवाओं का परामर्श दिया था। एंटीबायोटिक खाने वाले लोगों में 36,017 में अल्सरेटिव कोलाइटिस और 16,881 में क्रोहन डिसीज के लक्षण विकसित हुए। जिन लोगों को एंटीबायोटिक नहीं दी गई उन लोगों की तुलना में एंटीबायोटिक खाने वाले 10-40 वर्ष के लोगों में आईबीडी की आशंका 69 फीसदी ज्यादा पाई गई। वहीं, 40 से 60 वर्ष के लोगों में यह जोखिम दोगुना पाया गया। वहीं रिसर्च में कहा गया है कि 60 से अधिक उम्र के लोगों के लिए 95 प्रतिशत जोखिम बढ़ गया है।
चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज दो बीमारियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। क्रोहन रोग और अल्सरेटिव कोलाइटिस यानि सूजन आंत्र रोग। आईबीडी आंतों के विकारों का एक समूह है जो पाचन तंत्र में लंबे समय तक सूजन का कारण बनता है। सूजन आंत्र रोग के दो प्रमुख कारक अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोहन रोग हैं। ये पाचन तंत्र में घावों यानि अल्सर का कारण बनते हैं और सूजन भी होती है जिससे रोगी को अत्यधिक दर्द होता है।
मेदांता इंस्टीट्यूट ऑफ डाइजेस्टिव एंड हेपेटोबिलरी साइंसेज के अध्यक्ष डॉ रणधीर सूद इस मामले में कहते हैं- अध्ययन के परिणाम हालांकि महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इसे एक चुटकी नमक के साथ लिया जाना चाहिए। डॉ सूद ने कहा, भारत में एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग बहुत आम है। अगर वह आईबीडी के लिए एकमात्र कारण या जोखिम कारक होता, तो हमारे पास ऐसे मामलों की बाढ़ आ जाती। मुझे लगता है कि आईबीडी के विकास के पीछे एक और जटिल कारक होना चाहिए। हालांकि, उन्होंने एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग को रेगुलेट करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा डायरिया से पीडि़त 90 प्रतिशत लोगों को एंटीबायोटिक्स की आवश्यकता नहीं होती है। हाइड्रेशन बनाए रखना पर्याप्त होता है। डायरिया एक आत्म-सीमित बीमारी है। इसी तरह, ज्यादातर बुखार और छाती के संक्रमण अक्सर वायरल संक्रमण के कारण होते हैं और ऐसे मामलों में एंटीबायोटिक लेने से कोई फायदा नहीं होता है।
इसके अलावा एंटीबायोटिक दवाएं अधिक लेने से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। असल में हमारे शरीर में जो एंटीबाडी विकसित होती हैं, वो हमारे शरीर पर बीमारियों के हमलों से हमेंं बचाती हैं। और एंटीबायोटिक दवाएं भी एंटीबाडी जैसा ही काम करती हैं। इसलिए जब हम एंटीबायोटिक दवाएं अधिक लेते हैं, तो प्राकृतिक एंटीबाडी विकसित होने की रफ्तार कम हो जाती है। और फिर थोड़े से मौसम परिवर्तन या वायरस के हमले हमें बीमार कर देते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्राकृतिक तरीके से विकसित करने के लिए ही हम व्यायाम, योग करते हैं। हलकी फुलकी बीमारियों से बिना घबराए मुकाबला करना चाहिए। हमारे पास इन्हें ठीक करने के घरेलू उपाय भी हैं, जिन्हें करना चाहिए। लेकिन इसमें एक सावधानी यह रखना होगी कि हम बीमारियों की गंभीरता को नजरअंदाज न करें। सर्दी जुकाम का मुकाबला करने की क्षमता आसानी से विकसित की जा सकती है। प्रयास करने होंगे। आयुर्वेद का प्रयोग भी किया जा सकता है। लेकिन एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग उतना ही करें, जितना आवश्यक हो।
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