साइंटिफिक-एनालिसिस -
सदियों से वैज्ञानिकों के आविष्कार कौतुहल भरे रहे है जो विज्ञान के यथार्थ व उसके जीवन में महत्व को समझाते है और समाज को विकास की एक पीढ़ी आगे ले जाते है | इससे भी ज्यादा आश्चर्य वैज्ञानिकों की जिंदगी व उनके संघर्ष के बारे में जानकार होता है जो शांत दिमाग में आश्चर्य की झनझनाहट पैदा कर देता है |
वैज्ञानिकों की ऐसी जिंदगी जो वे अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्यतित करते है वो वास्तव में सामाजिक, प्रशासनिक व सरकारी सोच का प्रतिबिम्ब होता है जो उन्हे ऐसा जिने को मजबूर कर देता है अन्यथा कौनसा व्यक्ति उच्च स्तर की विश्लेषण एवं तार्किक क्षमता रखता हुआ विवशता एवं संघर्ष पूर्ण जीवन व्यतित करना पसंद करेगा |
वैज्ञानिकों का मुख्य कार्य नए आविष्कारों के रूप में सामने आता है, जो तकनिको एवं सिद्धांतो के आधार पर टीका होता है और सच के यथार्थ रुपी अलौकिक प्रकाश से सामाजिक बुराइयों एवं कुरुतियो को चीर डालता है |
सामान्य रूप से कोई भी नया आविष्कार करने से पहले उसके भूतकाल को जानना जरूरी होता है कि उसके पहले क्या-क्या हो चुका है | इसके पश्यात वर्तमान में चल रहे उत्पाद व उसकी तकनीक व तरिके को समझना पड़ता है | इससे आगे स्वार्थ, लालच, लोभ व अपनेपन के मायाजाल को अलग करते हुये असली कमियों को ढूंढना पड़ता है, फिर वर्तमान समय में आगे सोचकर तकनीकों एवं सिद्धांतो के ओजारो से कमियों को दूर करना पड़ता है, तब जाकर परिणाम के रूप में नया आविष्कार सामने आता है |
सामान्य ईंसान भूतकाल के हिस्से को आसानी से समझ जाता है परन्तु वर्तमान में चल रहे उत्पादों को परिभ्रमण दूरी की एक निश्चित सीमा में बन्धे होने के साथ-साथ बाज़ार की सीमा व उपलब्धता के कारण पुरि तरह नहीं समझ पाता तो वैज्ञानिकों द्वारा भविष्य कीं बात व उसके उत्पाद को समझना बहुत मुश्किल होता है और उसकी अधिकांश बातें सिर के उप्पर से गुजरने लगती है इसलिए उल्टा वैज्ञानिकों को आधा पागल कहकर लोग वर्तमान में जीने लग जाते है |
जीवन के स़फर में समय व्यतीत होता रहता है और व भविष्य से वर्तमान और फिर भूतकाल में बदल जाता है | जब भूतकाल बनता है तब जाकर लोगो को समझ में आता है कि फला वैज्ञानिक ने क्या कहा और क्या किया तब उसके प्रति संवेदना प्रकट करता है, उसे आदर्श व रोल मॉडल बनता है और अपनी संतानों को शिक्षा के रूप में उसके जीवन के बार में पढ़ाता है |
इस पुरे चक्र में सामाजिक व प्रशासनिक सोच के मायाजाल में जितना समय व्यतीत होता है उतने में कई संघर्षो का सामना करते हुये वैज्ञानिक कीं जिंदगी ही पूरी हो जाती है | यदि व्यापक विश्लेषण किया जाये तो यह व्यतित समय एक वैज्ञानिक से ज्यादा लोगो के लिए घातक साबित होता है जो समाज के विकास के पहिये को अवरुद्ध और धीमा कर देता है | यदि आविष्कार जीवन रक्षक दवाइयों एवं टीकों से जुड़ा हो तो कई ईंशानी मौतों का काल साबित होता है |
प्रत्येक आविष्कार के पिछे एक कहानी या घटना छुपी होती है परन्तु सभी उप्पर बताये सामाजिक मायाझाल के ट्रैक में फीट हो जाती है या इसे स्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त करे तो सभी आविष्कारों कीं घटनाओं से इस सामाजिक ट्रैक कीं पुष्टि होती है व प्रत्येक नई घटना इसे बलवती बनाती जाती है |
सोच के इस स्तर पर आने के बाद अधिकांश लोग फिर मानसिकता के भँवर में फँस जाते है जो बाजारवाद एवं धन मोह के पाश में जकड़े रहते है व मूल सिद्धांत और तकनीक को भुलकर व्यतिगत जीवन में उलझ रहते है | जो ईशान नहीं उलझता व शिक्षा के उच्च स्तर के मार्ग से गुजरता हुआ समाज को नई उच्चाइयों तक ले जाता है |
यह जीवन की रूपरेखा 19वीं सदी के सबसे ज्यादा व 20वीं सदी के कम वैज्ञानिकों के लिए उपयुक्त लगती है परन्तु अभी हम 20वीं सदी मे जी रहे है इसलिए समय के साथ तरिके बदल गये परन्तु सामाजिक सोच नहीं बदली | आप नए तरीकों को जानेगे तो समझ जायेगे की भारत को डाँ रमन के रूप में प्रथम नोबेल पुरुस्कार मिलने के बाद दूसरे के लिए अकाल क्यू पड़ा व आगे भी इसकी संभावना शुन्य क्यू है ? इसके अलावा जो वैज्ञानिक देश छोड़कर विदेश चला जाता है वो कैसे सफल हो जाता है व पुरी मानवजाति को गतिमान कर देता है |
सदियों से दुनिया में नया करके दिखाने का समाज मे क्रेडिट लेने की घृणित मानसिकता चली आ रही है | इस मानसिकता का सबसे ज्यादा शिकार वैज्ञानिक वर्ग होता आया है | ऐसी मानसिकता के दौर में किसी भी आविष्कार को मान्यता बड़ी मुश्किल से मिलती है, यदि मिलती है तो फिर आगे जनता तक पहुँचाने के लिए उससे कई गुना बड़ी समस्या मुँह फाडे खड़ी रहतीं है |
आविष्कार की सरकारी व कानूनी मान्यता का आधार सिर्फ़ पेटेंट लेना होता है जबकि सामाजिक व प्रशासनिक सोच पेटेंट को व्यवसाहिक कदम मानती है | यहा बाज़ार में पेटेंट की कीमत लाखों करोड़ों से आगे निकलकर अरबों में पहुँच चुकी है | यह उन आविष्कारों के लिए लागू होती है जिनका बड़े स्तर पर व्यवसाहिक उत्पादन हो रहा है |
सामाजिक व प्रशासनिक सोच तो सिर्फ़ पेटेंट की कीमत में उलझ जाती है व परिस्थिति का आकलन बहुत ही कम करती है | इस कारण आविष्कार की मान्यता के बाद आविष्कारक के लिए अनगिनत मुश्किलें बढ़ जाती है क्यूँकि अधिकांश व्यक्ति सोचते है की आविष्कारक तो करोड़ों कमायेगा, इसलिए "मुझे क्या मिलेगा?" के मुखौटे के पिछे छिप जाते है |
दैनिक जीवन में आविष्कार के बाद फैक्ट्री खोलना या किसी कंपनी को बेच देना ही सफलता का प्रतीक माना जाता है क्यूँकि इसी के माध्यम से आविष्कारक को पहली बार अपनी मेहनत का फल धन के रूप में नसिब होता है | जबकि तकनीकी रूप से पहला मार्ग युवा आविष्कारक को उत्पादक और दूसरा मार्ग उसे व्यवसाही बनाता है अर्थात उसका कार्य क्षेत्र या मार्ग बदल जाता है |
पिछ्ले कुछ वर्षों का आकलन देखा जाये तो वो ही आविष्कारक सफल हुआ जो स्वयं उद्योगपति या उत्पादक बना नहीं तो दोनो क्षेत्रों का कार्य एक साथ किया | एक तकनीक के बाद दूसरी तकनीक को खरीद कर या अनुबंध के आधार पर समाहित करना व्यवसाय की परिधि में आता है न की आविष्कार के दायरे में |
इसी तरह हम युवा वैज्ञानिक को सफलता की पहली सीढ़ी के बाद खत्म कर डालते है फिर प्रश्न पूछते है कि नये आविष्कार करने में हम दुनिया में पिछे क्यू है ? (भारत के वर्तमान राष्ट्रपति इसी प्रश्न पूछने के नाम पर करोड़ों खर्च कर पूरा देश घूम गये)
आविष्कारों के लिए एक और रास्ता है किसी कंपनी से अनुबंध करके रॉयल्टी कमाने का परन्तु यह तभी संभव है जब मोनोपोली किसी एक को दिया जाये | इस मार्ग से भी आविष्कारक आपने आविष्कार को उल्टा कर देता है आर्थात उसे लोगो तक पहुँचने से रोकता है |
सिर्फ़ विज्ञान के क्षेत्र में ही जनक या पिता की उपाधि दी जाती है क्यूँकि वह् एक आविष्कार को जन्म के साथ-साथ एक संतान की तरह पालता है जो एक नये युग की शुरुवात होती है | यदि वह मोनोपोली या एकाधिकार देता है तो अपनी ही संतान को एक बंदी गृह में भेजने के समान होता है जो उसे आम लोगो तक पहुँचने से रोकता है |
इसके बाद का रास्ता एक से ज्यादा कम्पनियों को तकनीकी ट्रांसफर करने का होता है परन्तु इस के लिए कार्य का एक प्लेटफॉर्म बनाना पड़ता है और कम्पनियों में प्रारंभिक रुचि पैदा करने के लिए विशेष छूट देनी पड़ती है | यह प्रशासनिक नियंत्रण में आता है परन्तु कार्य करने का निजी दायरे में, यह दोनो एक दूसरे के पूरक हो जाने से अन्य परिस्थितियां हावी हो जाती है | इस मार्ग में कुछ ही कम्पनियों तक पहुँचा जा सकता है जो क्षेत्र विशेष के लोगो तक सीमित रह जाता है | भ्रस्टाचार व लेटलतीफी के दौर में सरकारों से विशेष छूट लेना कितना आसान या मुश्किल है इसे भी बताने की जरूरत मुझे नहीं लगती |
इसका सबसे अच्छा उदाहरण कुछ माह पूर्व आये उच्चतम न्यायालय का निर्णय है | जिसमें स्विट्ज़रलैंड की कंपनी को कैंसर की दवा ग्लाइबाइक कि लिए पेटेंट नही दिया गया क्यूँकि उसमें नया कुछ नही था वो उसके खत्म हो रहे पहले के पेटेंट का ही रूप था | इस पर लोगो की राय को पुरी मीडिया जगत् ने प्रकाशित किया की कैंसर की दवा अब आम लोगो को सस्ते में मील पायेगी क्यूँकि पहले यह मूल उत्पादन कीमत से कई गुना ज्यादा दाम से मील रही थी जो लोगो के लिए आर्थिक तौर पर बड़ा बोझ थी | इसका अर्थ यह हुआ की हमारी जेब में दवाई रखी पड़ी है और जिंदगी भर अपने पेट की आग बुझाने के लिए पैसो की तृष्णा के वास्ते पानी रहित आँखें खोलकर लोगो को तड़पते व मरते देखना |
भौतिकवादी वस्तु में यह जघन्य अधर्म प्रकट नई होता परन्तु जीवन रक्षक दवाइयों में निर्लजता को सतह पर ला देता है | दार्शनिकों एवं विचारकों के शब्दों में यहा विज्ञान का आविष्कार मानवताविहीन हो जाता है | एक निशिचत समय के बाद कानून पेटेंट खत्म हो जाता है परन्तु व्यक्तिवादीं व विज्ञापन के युग में कॉपीराइट, ट्रेडमार्क व जिओग्राफिकल संकेत पेटेंट से बड़े साबित होकर मोनोपोली या एकाधिकार कि धार को कई वर्षों तक जीवित बनाये रखते है |
यहा तकनीक से बड़ा पैसा हो जाता है, जो तकनीक से आता है पैसा या पैसे से आती है तकनीक ? के जवाब को लोगो के दिमाग में भ्रमित पैदा कर डालती है |
आविष्कारक के पास अब आविष्कार को आगे जनता तक पहुँचाने के दो रास्ते शेष रहते है | पहला सरकारी सहयोग जहां कंपनी खोलने को प्रधान मानती है और किसी भी तरह के लिए पहले गारंटी मागती है | जब गारंटी के लिए धनी लोगो के पास जाओ तो उन्हे चाहिए पहले मोनोपोली |
दूसरा रास्ता बैंक व आर्थिक संस्थाओं का है जहां दुनिया के अब तक के सभी रिकॉर्ड से जाँचने के बाद आविष्कार की पुस्टि का सरकारी प्रमाण पत्र या पेटेंट शुन्य माना जाता है | यह गणितीय आकलन है जहां संविधान पेटेंट धारकों को विशेष अधिकार देता है, बाज़ार करोड़ों की कीमत और मुद्रा की व्यवस्था करने वाली संस्थाये खोटा पैसा भी नहीं अर्थात यहा से भी आविष्कारक को आविष्कार बेचने का मार्ग दिखा दिया जाता है |
यह आधुनिक भारतीय शिक्षा की सबसे बड़ी विडंबना है जहां ज्यादा उच्चाई पर जाने पर व्यक्ति असाहय हो जाता है | पहले व्यक्ति प्राथमिक शिक्षा लेता है, फिर मिडिल से होता हुआ सेकंडरी उसके पश्चात हायर सेकंडरी की शिक्षा लेता है | इसके आगे स्नातक (ग्रेजुएट) फिर स्तानकोतर (पोस्ट ग्रेजुएट) करता है, उसके बाद अनुसंधान कार्य करता है, फिर पी. एच. डी. की उपाधि लेता है और अंत में कुछ नया करके कानूनी मान्यता पेटेंट या एकस्व के रूप में परन्तु सारी सुविधाये व मुफ्त सरकारी छूट उप्पर जाते-जाते खत्म हो जाती है या जाति विशेष में विभाजित होती हुइ दम तोड़ देती है |
कॉलेज, रिसर्च संस्थानों के माध्यम से कई योजनाये दीं जाती है वो सिर्फ़ रिसर्च वर्क के लिए न की रिसर्च के बाद सफलता पर, यदि सफलता के बाद दिया भी जाता है तो वहा गाइडलाइन के रूप में शर्ते विध्यमान रहतीं है | अंग्रेजो की गुलामी से आने वाली शिक्षा पद्धति की गाइडलाइन वाली शर्तें कितनी स्वतन्त्र होगी उसका अनुभव तो आप लोगो को हमसे ज्यादा है |
आवश्यकता आविष्कार की जननी है, इसी सार्वभौमिक सत्य के कारण भारत जैसे संस्कृति एवं कर्म प्रधान देश में कई आविष्कार अनुभव और कार्य के प्रति ईमानदारी की निष्ठा व समर्पण के दम पर आते है जिसमें अधिकांश आगे अज्ञानता के कारण सरकारी बाबुओं की वैज्ञानिक जमात और व्यवसाहिक के चक्रव्युह में दम तोड़ देते है |
विश्वविधालय में चयनित विध्वान लोगो के रिसर्च की स्वकृति पर पी.एच.डी. या उपाधि मिलती है यदि सरकार के चयनित विध्वान लोग दुनिया के सभी रिसर्च को जाँच कर दुनिया में पूर्णतया नया होने का प्रमाण-पत्र दे देवे तो फिर कुछ नहीं मिलता है |
देश में कई सरकारी व निजी संस्थाये है जहां लाखों की संख्या में वैज्ञानिक कार्य कर रहे है वे आये दिन रोज़ कई तकनीकें और आविष्कार राष्ट्र को दे रहे है परन्तु ये सभी निजी संस्था व सरकार के दायरे में आते है जो पहले पैसा लेकर और देकर कार्य करते है | यहा पेटेंट के प्रतिफल का मालिक व्यक्ति नहीं कहलाता है |
यह पैसे के आधार का कार्य करवाने का तरीका व आविष्कार के पहले सीमाएँ वैज्ञानिकों को विदेश की ओर ले जाती है या कम्पनियों व संस्थानों के लिए काम करने का मार्ग प्रशस्त करती है | इस कदम से फिर कुछ नया करने की मूल सोच आदेश के तहत कार्य करने की श्रृंखला में पीस जाती है | जहां सोचने व करने की आजादी ओर वैज्ञानिकों की सोच में विश्वास होता है वहा संस्थाये अवश्य नया करके दिखाती है |
अब अंतिम रास्ता सामाजिक संस्थाओं का व दरियादिल वाले धनी लोगो का बचता है | इसमें पैसा दान में दिया जाता है जो आविष्कारक की आत्मा को ही मार डालता है तो फिर आत्मविश्वाश को बची राख में ढूढना बेईमानी लगता है | यह दान उसके आविष्कार करने के कार्य को गाली देता है ओर चिढ़ाता है की तुम कमाने लायक नहीं हो या शारीरिक ओर मानसिक तौर पर विकलांग हो |
दान की व्यवस्था व तन्त्र वैज्ञानिक को मानवता व इंसानीयत की दुआई देकर उसके आविष्कार को दान में देने की बात करता है | यहा पर भी दोनो मार्ग आगे जाकर वैज्ञानिक के जीवन को अवरुद्ध कर देते है | पहला वैज्ञानिक ने दान दे दिया तो वह् आगे अनुसंधान के कार्यक्षेत्र में नहीं रह सकता क्यूँकि इसके लिए धन चाहिए ओर पहले में लगाया धन ही नहीं मिला तो परिवार के सदस्यों के साथ कोई भी ईंसान मदद नहीं करता | दूसरा मार्ग वैज्ञानिक जिंदगी भर मेहनत करे ओर कभी सफल हो जाये तो उसे दान कर दे ऐसी व्यवस्था बनाकर वो अपने ही अनुसंधान क्षेत्र के साथ गद्दारी करता है या जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है जो नई पीढ़ी को इसमे आने से रोकता है व उसके मानवीय समाज में जिने के अधिकार को |
मुझे पता है इतनी सारी सच्चाई ओर भूतकाल का विश्लेषण जानकर अधिकांश लोग मुझे ही नकारात्मकता से ग्रसित बताकर फिर अपनी पुरानी सोच के दायरे में चले जायेगे | आविष्कार ओर नवीन करने की पहली सीढ़ी को पार करके लौट जाना आपके स्वाभिमान से मेल नहीं करेगा व उज्जवल भविष्य निर्माण के प्रारम्भ के पगडण्डी तक आकर लौट जाना किसी भी द्रष्टीकोण से उचित नहीं होता |
इसके लिए कुछ नया करना पड़ेगा जो इन सभी प्रश्नो का उपाय हो | चार वर्ष से अधिक समय से कनुनन एवं सवेधनिक तौर पर अधिकृत राष्ट्रपति महोदय के पास हमारे आविष्कार असली स्वतः टूटने वाली सिरिंज की फाइल पर अन्तिम निर्णय होने दो सारे उपाय आपके सामने आ जायेगे |
इस उपाय के माध्यम से लक्ष्य तक पहुँचने का रस्ता व प्रक्रिया बनेगी जिसके लगातार किर्यान्यवन के लिए कई कानून बनेगे वो वास्तविकता में व्यवस्था परिवर्तन कहलायेगा ओर प्रत्येक आविष्कार या एकस्व कम समय एवं न्यूनतम मूल्य में प्रत्येक ईंसान तक पहुँच पायेगा |
वैज्ञानिकों के साथ प्रायः ऐसा क्यों होता है?
देश ही नहीं दुनिया ने देखा कि अंतरिक्ष अनुसन्धान केंद्र की अग्रणी माने जाने वाली अमेरिका की संस्था नासा में वैज्ञानिक रहकर अपने कंप्यूटर से भी तेज दिमाग के अद्वितीय ज्ञान का लोहा बनवा चुके व्यक्ति को असमय मृत्यु पर घंटो तक एम्बुलेंस बिना यूही एक किनारे पड़ा रहना पड़ा |
यह इंसानो के द्वारा ईन्सानो के लिए बनाई व्यवस्था में कामयाबी के शिखरों को छू लेने के बाद 45 वर्षो का अधिकांश जीवन पैसों, सुविधाओं, सामाजिक सम्मान व प्रशासनिक सजगता के अभाव में सिर्फ बीमारियों को झेलते रहने में बर्बाद हो जाने की जमीनी सच्चाई है |
हम बात कर रहे है वैज्ञानिक गणितीय वशिष्ठ नारायण सिंह की जिन्होंने आइंस्टीन की थ्योरी को भी चुनौती दे डाली थी | इन्होने अपने नासा में अपने कार्य के दौरान लाईट चली जाने के कारण कंप्यूटर बंद होने पर स्वयं मोर्चा संभाला और वो गणितीय आकलन करते रहे जिससे पूरा प्रोजेक्ट चलता रहे व जब दुबारा लाईट आई तो इनकी गणित व कंप्यूटर की गणित में लैश मात्रा का भी अंतर नहीं था | यह वो गणित होती है जिसके पॉइंट के बाद तीन व चार अंको में भी गलती हो तो अंतरिक्ष में पूरा प्रोजेक्ट असफलता के दायरों में गिर जाता है | कुछ महीनो पहले चन्द्रमा पर भारत के रोबोट का अंतिम समय में संपर्क टूट जाने पर आपने इसरो के प्रमुख का रोता चेहरा व देश के करोडो रूपये खर्च हो जाने के बाद प्रधानमंत्री को सांत्वना देते देखा है |
यह वो महान वैज्ञानिक थे जिन्होंने अमेरिका को छोड़ कर अपने भारत देश व जन्मभूमि बिहार को विकसित करने व आपके बच्चो के रूप ने देश की नई पीढ़ी को प्रतिभावान बनाने की बीमारी पाल ली थी |
इनके अलावा आपने करीबन दो वर्ष पूर्व राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गाँधी के पौत्र कनुभाई रामदास गांधी के जीवन का गुजरात में सकरी गलियों के बिच एक वृद्धाआश्रम में अंतकाल भी देखा | इन्होने भी नासा के अन्दर वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया था | जीवन के अंत में आते-आते सामाजिक व प्रशासनिक निरसता ने इनको भी घेर लिया था |
संस्कारो, जीवन के नैतिक मूल्यों को तवज्जो देने वाले समाज में सड़को पर महात्मा गांधी की मूर्ति के पास घूमकर हर सरकारी विभाग महात्मा गांधी की फोटो की परछाई में काम करता रहा और उनकी असली परछाई पोते के रूप में मुख्य धारा से कटी नजर आई |
शिक्षा जिसको आधार मानकर हर ईन्सान को पढ़ाने व लिखाने का मूल कर्तव्य मानकर दुनिया भर की तमाम सरकारे प्रतिवर्ष अरबो-खरबो रुपये खर्च करती है | व्यवस्था में स्कूली शिक्षा के बाद स्नातक व स्नात्तकोतर के रूप में कॉलेज की पठाई होती है फिर विश्वविद्यालयों में रिसर्च या अनुसन्धान होता है जब कई लम्बे समाय तक समर्पित कार्य के बाद नये आविष्कार के रूप में मानव विकास आगे बढ़ता है | इस उच्चाई पर आने के बाद सदैव अधिकांश वैज्ञानिकों के साथ ऐसा क्यों होता है | हम देश नहीं दुनिया के आर्कमडीज, गेलेलियो जैसे सेकड़ो वैज्ञानिकों को देख सकते है जिनके नाम व काम पर नई पीढ़ी को साक्षर किया जाता है |
आपने दक्षिण भारत के शिवा अय्यादुराई का नाम सुना होगा जिनके 14 वर्ष की उम्र में ईमेल के आविष्कार करने की बात कही जाती है परन्तु अमेरिका में अपने काम की जंग में क़ानूनी अधिकारों में फंस जाते है जिससे आर्थिक व सामजिक रूप से जीवन जीने के कई अधिकारों से वंचित हो जाते है |
देश नहीं दुनिया भर में सभी वैज्ञानिकों के जीवन में हम क्रमश: "सोच के मायाझाल में फसी वैज्ञानिक जिंदगी और उसके आविष्कार" के वैज्ञानिक-विश्लेषण के तीन भाग प्रस्तुत करेंगे ताकि लोगो व सरकारों को पता चल सके की कमियां व फासले सदैव कहा पैदा होते आये है | यह हमने अपने असली एड़ी-सिरिंज के आविष्कार और भारत को दुनिया में 350 वर्ष पुराने आधुनिक प्लास्टिक आधारित डिस्पोजेबल चिकित्सा विज्ञान में अग्रणी बनाने के दौरान अनुभव से जाना है |
350 वर्ष पुरानी आधुनिक डिस्पोजल चिकित्सा विज्ञान मे भारत को अग्रणी बनाने वाला
- आलेख -
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक
व्यक्तिगत रूप से अपने अविष्कार के लिए सयुक्त राष्ट्र संघ, इंटरनेशनल रेड क्रॉस सोसाइटी, ग्लोबल फण्ड, बिल गेट्स एंड मेलिना फाउंडेशन, क्लिंटन फाउंडेशन, अमेरिकी राष्ट्रपति से प्रतिक्रिया या बधाई प्राप्त करी
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