संपादकीय.. मुक्त (अर्थ)व्यवस्था...!

संजय सक्सेना 
मुक्त-बाजार वाली अर्थव्यवस्था में आपका स्वागत है। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, मेटा (फेसबुक), अमेजन, ट्विटर जैसी दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नोलॉजिकल कम्पनियों ने हाल ही में बड़ी संख्या में कर्मचारियों को नौकरी से भी निकाला है। केवल इन कंपनियों ने ही नहीं, पूरे टेक-सेक्टर में लाखों लोगों ने हाल में काम गंवाया है। और यही कारण है कि एक बार फिर से लोगों में सरकारी नौकरी के प्रति रुझान बढ़ता दिख रहा है, जबकि भारत में ही सरकारी नौकरियां भी अस्थाई कर दी गई हैं। 
वर्तमान दौर में निजी क्षेत्र में जिस तरह से नौकरियां जाने का दौर चल रहा है, वो हमारे लिए आंख खोल देने वाले हैं। ग्लैमरस दिखने वाली मल्टी-नेशनल नौकरियां अचानक भद्दी दिखने लगी हैं। हम अकसर आर्थिक उदारीकरण के लाभों पर बात करते हैं और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देते हैं, लेकिन हम इसके स्याह पहलू की उपेक्षा कर देते हैं। और वो यह है कि निजी क्षेत्र क्रूर और भावनाहीन है। सच यही है। क्योंकि यह मुनाफे और ग्रोथ की सोच से संचालित होता है।  केवल लाभ पर आधारित निजी क्षेत्र का उद्देश्य शेयरधारकों को रिटर्न देना मकसद होता है। जब सब ठीक चल रहा हो तो ये निजी कम्पनियां अपने कर्मचारियों की बड़ी परवाह करती मालूम होती हैं, लेकिन जैसे ही स्थितियां प्रतिकूल हुईं और कम्पनी की परफॉर्मेंस दबाव में आई, वह इस समस्या का समाधान करने के लिए जो बन पड़ेगा, वह करेगी। सबसे पहले तो कर्मचारियों को नौकरी से निकालने का दौर शुरू किया जाता है। 
कहने को कोविड का बुरा दौर गुजरने का दावा किया जा रहा है। खबरों में लगातार आर्थिक गतिविधियों की बढ़ती रफ्तार दिखाई जा रहा है। अधिकांश उद्योगों के पटरी पर आने की बात कही जा रही है। फिर अचानक दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों ने लोगों को नौकरी से निकालना क्यों शुरू कर दिया? आम तौर पर टेक-सेक्टर फलता-फूलता है, लेकिन आज उसमें गिरावट क्यों आ गई? अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोविड के कारण आया टेक-बूम लोगों की उम्मीद से कम ही दीर्घायु साबित हुआ। इस कालखंड में टेक-कम्पनियों ने जरूरत से ज्यादा लोगों की भर्ती कर ली थी, उन्हें लगा था कि दुनिया अब हमेशा ही ऑनलाइन डिलीवरी और वर्चुअल मीटिंग के भरोसे रहने वाली है। इस मामले में वे गलत ही साबित हुए। दूसरा कारण यह है कि स्टार्टअप सेक्टर में आया बूम भी अब खत्म हो चुका है। बूम के समय कम्पनियां हर कीमत पर ग्रो करने पर ध्यान केंद्रित किए हुए थीं। लेकिन आज सेंटिमेंट्स बदल गए हैं। ब्याज दरें ऊंची हैं और निवेश करने वाले लोग अब इन कम्पनियों से फायदे की मांग कर रहे हैं। ऐसे में कॉस्ट-कटिंग का सीधा मतलब कर्मचारियों को निकालना हो जाता है।
इसी कारण सरकारी नौकरी का महत्व पहले से भी ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि उसे सुरक्षित माना जाता है। आज करोड़ों भारतीय सरकारी नौकरी की चाह में हैं। ऐसे में हम क्या करें? क्या निजी क्षेत्र में भावनाओं की कोई जगह नहीं होती और वहां से आपको कभी भी दरकिनार किया जा सकता है? निजी क्षेत्र की कम्पनियों की पहली जिम्मेदारी अपने शेयरधारकों के प्रति होती है, उस कंपनी को फायदे में पहुंचाने वाले कर्मचारियों की नहीं। भारत में जिस तरह से स्टार्टअप को बढ़ावा दिया जा रहा है, इसे अनुचित तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जो दिख रहा है, वैसा हो नहीं रहा। नए स्टार्टअप की उम्र का प्रतिशत दस से ऊपर नहीं जा रहा है। चालू होने के कुछ समय बाद ही दम तोड़ रहे हैं। अब यदि चाय-नाश्ते की दुकान और फुटपाथ पर अस्थाई दुकानों को हम स्टार्ट अप या बड़ा रोजगार मानने लगें तो इसमें किसी की क्या गलती? 
हम भले ही मुक्त अर्थव्यवस्था की बड़ाई करते हैं, यहां हर चीज मुक्त है। कोई भावना नहीं, कोई लगाव नहीं। आपने किसी कंपनी में क्या योगदान दिया है, इससे कोई लेना देना नहीं। आपकी नौकरी स्थाई नहीं है। आपका योगदान कचरे की टोकरी में डाल दिया जाएगा। इस समय तो पूरी दुनिया महंगाई के साथ ही आर्थिक संकट के बुरे दौर से गुजर रही है। कोविड के बाद जो उम्मीदें बंधी थीं, टूटती दिख रही हैं। सरकारें झूठे आंकड़ों के सहारे लोगों को भ्रमित किए हुए हैं। शेयर बाजार कभी धड़ाम हो जाता है, कभी नई ऊंचाइयां छूता दिखने लगता है। जैसे ये भी कागजों पर ही चल रहा हो। सब कुछ हवा में ही होता दिखता है, जमीन पर कुछ नहीं। तभी तो हलके से झटके में नीचे आ जाता है। 
इसलिए बड़े-छोटे का भेद मिटाएं। किसी भी क्षेत्र की तरफ अचानक आकर्षित हो कर अपनी उम्मीदों को भावनाओं से इतना न जोड़ें कि फिर तकलीफ हो। कुल मिलाकर भौतिकवाद को भौतिकता तक ही सीमित रखेंगे, तो शायद खुश रहेंगे। संतोषी सदा सुखी। हां, प्रयास अवश्य करते रहें। बेहतर से बेहतर पाने की कोशिश करें। करते रहें। निराशा को दूर रखते हुए। हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार भी रहें। इति। 

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