कल किसान दिवस निकल गया। पता ही नहीं चला। देश से लेकर राज्यों की सरकारों में जो लोग बैठे हैं, उनमें अधिकांश या तो किसान रहे हैं या कागजों में अभी भी किसान हैं, लेकिन जो असली किसान हैं। यानि आज भी खेती पर ही निर्भर हैं, उनकी बात तो सब करते हैं, समाधान आज तक नहीं निकल सका है।
कम ही लोगों को पता है कि चौधरी चरण सिंह के जन्म दिवस यानी 23 दिसंबर को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
असल में, चौधरी चरण सिंह को किसानों, खासकर छोटे और सीमांत किसानों की समस्याओं, उनके मुद्दों को आगे लाने के लिए जाना जाता है। किसान दिवस पर किसानों की बात तो की ही जा सकती है। कितनी विडम्बना है कि कृषि प्रधान इस देश का अधिकांश किसान आज भी खेती के लिए बारिश के पानी पर ही निर्भर है। उनकी फसलों के लिए खाद की बारी आती है तो उसकी कालाबाजारी शुरु हो जाती है। रात भर लाइन में लगने के बाद दो बोरी मुश्किल से मिलती है। यूरिया चाहिए तो डीएपी मिलती है। बीज मिलने की अलग समस्या है।
फसल बिकने की बारी आती है तो क़ीमतें कम और बहुत कम हो जाती हैं। कह सकते हैं, कम कर दी जाती हैं। सरकारें कुछ करती नहीं और व्यापारी बिचौलिया बनकर खूब कमाते हैं। मुख्य समस्या यह है कि आज भी भारतीय किसान के पास फसल को रोकने या रोके रखने की ताक़त नहीं है। फसल के आने के वक्त जो भी दाम मिले उसमें उसे बेचने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं होता। उसके पिछले कर्ज, आने वाले खर्च, उसे फसल को रोके रखने की कभी इजाजत नहीं देते।
शक्तिशाली सरकारों के रहते किसानों को महीनों इस बात के लिए आंदोलन करना पड़ता है कि कम से कम उसकी फसल के सही दाम मिल सकें। सरकारें हैं कि वादे करके मुकर जाती हैं और किसान कुछ नहीं कर पाता। समस्या यह भी है कि जिस तरह कर्मचारी हड़ताल कर देते हैं, शिक्षक कलम बंद हड़ताल कर सकते हैं, उस तरह किसान फसल बोना या पैदा करना नहीं रोक सकता। दिल्ली तक में आंदोलन कर चुका, कुछ नहीं हुआ, कई किसान शहीद हो गए। आंदोलन करते हैं, तो किसी को खालिस्तान से जोड़ दिया जाता है तो किसी को आतंकवादियों से।
सरकारें चाहे जिस दल की भी हों, फ़ायदा उठाती रहती हैं। सहूलियत के नाम पर किसान को मोटे तौर पर कुछ नहीं मिलता। शहरों में, उद्योगपतियों की फैक्ट्रियों में चौबीसों घंटे बिजली रहती है लेकिन किसान को बारह घंटे भी बिजली नहीं मिल पाती। क्यों? कोई नहीं जानता। किसी सरकार के पास इसका जवाब भी नहीं है। किसान समझता है कि दो घंटे से दस घंटे बिजली मिलना तो बेहतर ही है, इसलिए वह भी कुछ नहीं बोल पाता। बोले भी तो आखिर सुनने वाला कौन है? जो किसान उनका वोट पाकर संसद या विधानसभाओं में पहुँच जाते हैं, वे किसान रह ही नहीं जाते। नेता-उद्योगपतियों की गिनती में आ जाते हैं। किसानों को इस तरह धोखे के सिवाय कुछ भी नसीब नहीं होता। खेती के नाम पर अवैध कमाई दर्ज करके खेती को लाभ का धंधा बनाने की साजिश भी चल रही है। एक किसान की आय खेती से यदि दस हजार रुपए माह होती है, तो विधायक या मंत्री बनते ही एक करोड़ रुपए सालाना से भी ऊपर पहुंच जाती है। कभी इस पर सवाल नहीं किए गए।
और एक बात। अब तो असली किसान जब भी आंदोलन करते हैं, समानांतर आंदोलन भी खड़ा करने की कोशिश की जाती है। उधर बैठकें शुरू होती हैं, इधर सरकार द्वारा प्रायोजित संगठन प्रदर्शन के नाम पर सभा करते हैं, मंत्री, मुख्यमंत्री को बुलाकर अपनी दुकान सजा लेते हैं। विरोध के नाम पर एक ज्ञापन, और सारा खर्च सरकार के सिर। किसान को क्या मिला? कुछ नहीं। जो सरकार को करना है, वही होगा। किसान हो या मध्यम वर्ग, सरकारें उसे झुनझुना ही पकड़ाती हैं। आश्वासनों की नदी बहती है चुनाव में, चुनाव होते ही सूख जाती है। उसके घाट भी लापता हो जाते हैं। मुट्ठी खुली और हाथ खाली। बजाओ ताली। जय जवान, जय किसान।
कम ही लोगों को पता है कि चौधरी चरण सिंह के जन्म दिवस यानी 23 दिसंबर को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
असल में, चौधरी चरण सिंह को किसानों, खासकर छोटे और सीमांत किसानों की समस्याओं, उनके मुद्दों को आगे लाने के लिए जाना जाता है। किसान दिवस पर किसानों की बात तो की ही जा सकती है। कितनी विडम्बना है कि कृषि प्रधान इस देश का अधिकांश किसान आज भी खेती के लिए बारिश के पानी पर ही निर्भर है। उनकी फसलों के लिए खाद की बारी आती है तो उसकी कालाबाजारी शुरु हो जाती है। रात भर लाइन में लगने के बाद दो बोरी मुश्किल से मिलती है। यूरिया चाहिए तो डीएपी मिलती है। बीज मिलने की अलग समस्या है।
फसल बिकने की बारी आती है तो क़ीमतें कम और बहुत कम हो जाती हैं। कह सकते हैं, कम कर दी जाती हैं। सरकारें कुछ करती नहीं और व्यापारी बिचौलिया बनकर खूब कमाते हैं। मुख्य समस्या यह है कि आज भी भारतीय किसान के पास फसल को रोकने या रोके रखने की ताक़त नहीं है। फसल के आने के वक्त जो भी दाम मिले उसमें उसे बेचने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं होता। उसके पिछले कर्ज, आने वाले खर्च, उसे फसल को रोके रखने की कभी इजाजत नहीं देते।
शक्तिशाली सरकारों के रहते किसानों को महीनों इस बात के लिए आंदोलन करना पड़ता है कि कम से कम उसकी फसल के सही दाम मिल सकें। सरकारें हैं कि वादे करके मुकर जाती हैं और किसान कुछ नहीं कर पाता। समस्या यह भी है कि जिस तरह कर्मचारी हड़ताल कर देते हैं, शिक्षक कलम बंद हड़ताल कर सकते हैं, उस तरह किसान फसल बोना या पैदा करना नहीं रोक सकता। दिल्ली तक में आंदोलन कर चुका, कुछ नहीं हुआ, कई किसान शहीद हो गए। आंदोलन करते हैं, तो किसी को खालिस्तान से जोड़ दिया जाता है तो किसी को आतंकवादियों से।
सरकारें चाहे जिस दल की भी हों, फ़ायदा उठाती रहती हैं। सहूलियत के नाम पर किसान को मोटे तौर पर कुछ नहीं मिलता। शहरों में, उद्योगपतियों की फैक्ट्रियों में चौबीसों घंटे बिजली रहती है लेकिन किसान को बारह घंटे भी बिजली नहीं मिल पाती। क्यों? कोई नहीं जानता। किसी सरकार के पास इसका जवाब भी नहीं है। किसान समझता है कि दो घंटे से दस घंटे बिजली मिलना तो बेहतर ही है, इसलिए वह भी कुछ नहीं बोल पाता। बोले भी तो आखिर सुनने वाला कौन है? जो किसान उनका वोट पाकर संसद या विधानसभाओं में पहुँच जाते हैं, वे किसान रह ही नहीं जाते। नेता-उद्योगपतियों की गिनती में आ जाते हैं। किसानों को इस तरह धोखे के सिवाय कुछ भी नसीब नहीं होता। खेती के नाम पर अवैध कमाई दर्ज करके खेती को लाभ का धंधा बनाने की साजिश भी चल रही है। एक किसान की आय खेती से यदि दस हजार रुपए माह होती है, तो विधायक या मंत्री बनते ही एक करोड़ रुपए सालाना से भी ऊपर पहुंच जाती है। कभी इस पर सवाल नहीं किए गए।
और एक बात। अब तो असली किसान जब भी आंदोलन करते हैं, समानांतर आंदोलन भी खड़ा करने की कोशिश की जाती है। उधर बैठकें शुरू होती हैं, इधर सरकार द्वारा प्रायोजित संगठन प्रदर्शन के नाम पर सभा करते हैं, मंत्री, मुख्यमंत्री को बुलाकर अपनी दुकान सजा लेते हैं। विरोध के नाम पर एक ज्ञापन, और सारा खर्च सरकार के सिर। किसान को क्या मिला? कुछ नहीं। जो सरकार को करना है, वही होगा। किसान हो या मध्यम वर्ग, सरकारें उसे झुनझुना ही पकड़ाती हैं। आश्वासनों की नदी बहती है चुनाव में, चुनाव होते ही सूख जाती है। उसके घाट भी लापता हो जाते हैं। मुट्ठी खुली और हाथ खाली। बजाओ ताली। जय जवान, जय किसान।
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