क्या यह सही है, आईएएस अफ़सरों में यह होड़ लगी है कि कहीं उनकी गिनती ईमानदार अफ़सरों की श्रेणी में न होने लगे? अगर ऐसा हुआ तो उन्हें पनिशमेंट पोस्टिंग मिलने लगेगी? जी हां, हाल में आईआईएम ने एक सर्वे किया जिसमें मौजूदा और भावी आईएएस से सवालों के ज़रिए यह निष्कर्ष निकाला गया कि ये अफ़सर केवल इसलिए घूस लेना प्रिफर करते हैं ताकि वे ईमानदार श्रेणी में न गिने जाएँ। कारण यह भी है कि घूस लेते पकड़े जाने की सजा भी बहुत ज़्यादा नहीं है।
देखा जाए तो यह ट्रेंड अफ़सरों की भाषा या सोच को नहीं, अपितु सरकारों के स्वभाव को दर्शाता है। सर्वे में सामने आया है कि ज़्यादातर सरकारें उन्हीं अफ़सरों को अच्छा या बहुत अच्छा मानने लगी हैं जो उनकी सहूलियत के हिसाब से चीजों को तोड़-मरोड़ सकें या डेटा को उनकी प्रशंसा में पेश कर सकें। कोई ईमानदार अफसर तो ऐसा करने से रहा, इसलिए उसे लूप लाइन में डाल दिया जाता है। यानि ऐसे विभाग में पोस्टिंग कर दी जाती है, जहां उन्हें बाबूगिरी का काम ही करना होता है। विशेष तौर पर, चुनावों के समय तो कुछ ज्यादा ही ऐसा होता है। चुनाव घोषणा के पहले थोक में कलेक्टर-एसपी के तबादले किए जाते हैं। महत्वपूर्ण विभागों में पसंदीदा अफसर बैठाए जाते हैं। पार्टियों के संगठन और विधायकों-मंत्रियों तक की पसंद पूछी जाती है कि उन्हें कौन सा अफसर सूट करेगा। शायद इसीलिए, ताकि मौजूदा सरकार के या उनके प्रतिनिधियों के हिसाब से चीजें चल सकें।
सामान्य तौर पर जनता सोचती है कि नए बच्चे जब बड़े अफ़सर बनकर काम करेंगे तो वे लोगों की मजबूरियों, असल समस्याओं को ज़्यादा करीब से देख पाएँगे या समझ पाएँगे। हो सकता है कुछ देर, कुछ दिन, कुछ महीनों या कुछ सालों तक ऐसा होता भी हो, लेकिन बाद में हमारी भ्रष्ट व्यवस्था उस युवा अफ़सर को इस तरह चारों ओर से जकड़ लेती है कि वह अपनी मजऱ्ी से हिल- डुल भी नहीं पाता। वैसे लोगों की सोच भी बदलने लगी है। देखने में आता है कि यदि किसी का बच्चा डाक्टर, इंजीनियर या अफसर बन जाता है, तो उसे सबसे पहले उसकी कमाई पर गर्व होता है। बच्चों से कहा भी जाता है, सरकारी अफसर बन जाओ, सब कसर निकाल लेना। और शादी में दहेज लेने के दौरान भी बात आती है, हमने बच्चे को पढ़ाने में इतने लाख या करोड़ खर्च किए हैं, दहेज लेना तो बनता है। नौकरी में भी यही प्रतिस्पर्धा लग जाती है कि पहले अपनी पढ़ाई, कोचिंग या नौकरी अथवा प्रतियोगिता में सफलता के लिए दी गई रिश्वत निकाना है, फिर आगे की बात करेंगे। यह सोच भी कई बार भ्रष्टाचार की ओर बढऩे में सहायक होती है।
लेकिन यह चौंकाने वाली बात ही है कि ईमानदार अधिकारी को बेहतर पोस्टिंग कम मिलती है। अच्छी पोस्टिंग के लिए अधिकारी भ्रष्टाचार करते हैं। अफ़सर भ्रष्ट होने को लालायित क्यों नहीं होंगे? व्यवस्था ही जब उन्हें भ्रष्ट बनाने पर तुली हो तो कोई क्या कर सकता है? फिर भी ऐसा नहीं है कि देश में ईमानदार अफ़सर बचे ही नहीं हों। बहुत हैं। और आज के माहौल में ईमानदार उन्हें भी मान लिया जाता है, जो बहुत नीचे गिर कर भ्रष्टाचार नहीं करते। जो हर मामले में रिश्वत नहीं लेते, गरीब तबके के काम कर देते हैं। भ्रष्टाचारियों की संख्या से भी ज़्यादा आज ईमानदार अफ़सर मौजूद हैं, लेकिन जैसे कि कहा जाता है - एक मछली, पूरे तालाब को गंदा कर देती है। वही हाल यहाँ भी है। कुछ भ्रष्ट अफ़सरों के कारण पूरी नौकरशाही बदनाम होती रही है और अब भी बदनाम है। आप ईमानदार बने रहना चाहते हैं तो कोई ताकत आपको डिगा नहीं सकती। बस, साल में तीन- चार ट्रांसफर झेलने को तैयार रहना होता है। भ्रष्टाचारी में गर्व नहीं होता, अकड़ होती है। आंखों में चमक नहीं होती, पैसे की भूख होती है।
काम के प्रति ईमानदारी रखना भी बहुत बड़ी बात होती है। सरकारों में हाल यह होता है कि चापलूसी को प्राथमिकता दी जाती है। मंत्री के हिसाब से काम करते हैं तो ठीक, नहीं तो अधिकारी खराब है। भले ही वह विभाग में अच्छा काम कर रहा हो, नियमों के अनुसार काम कर रहा हो। हमें सोच तो बदलनी होगी। केवल चुनाव जीतना, येन केन प्रकारेण, यही ध्येय बना रहा तो समस्या और बढ़ेगी। समाज का पतन और तेजी से होता जाएगा। बेहतर अधिकारियों की हौसला अफजाई करना चाहिए। होती रहना चाहिए। पहले अपने बच्चों से ही करनी होगी। यह सोच तो पहले बदलनी होगी कि ऊपरी कमाई से ही हम जिंदा रह सकते हैं, आगे बढ़ सकते हैं। यह सिद्धांत भी आज भी लागू होता है, जैसा पैसा आता है, वैसा ही जाता है। परिणाम जल्दी आए, या देर से।
-संजय सक्सेना
Post a Comment