मौत का पुल बनाम भ्रष्टाचार



संजय सक्सेना 
गुजरात के मोरबी शहर में जिन परिस्थितियों में एक सस्पेंशन ब्रिज टूट कर नदी में जा गिरा, वह दुखद होने के साथ ही चिंतनीय भी है। अभी तक 134 लोगों के शव मिल चुके हैं, बहुत सारे लोग गायब हैं। अभी तक की सूचनाओं के अनुसार दुर्घटना के समय पुल पर 400 से ज्यादा लोग मौजूद थे। ऐसे में मौतों की संख्या और बढ़ सकती है। कहने को सरकार ने एक विशेष जांच दल का गठन कर दिया है। यह भी दावा किया जा रहा है कि जांच में जो भी दोषी पाए जाएंगे, उन्हें बख्शा नहीं जाएगा। 
परंतु क्या वास्तव में ऐसा हो पाएगा? अभी तक बाबू, चपरासी स्तर के लोगों को गिरफ्तार किया गया है। पहली बात तो यह है कि अपने देश में जांच समिति का गठन कठिन सवालों को टालने का एक जरिया बनता जा रहा है। इस मामले में भी पहली नजर में ही ऐसे बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं, जिनके जवाब तत्काल सार्वजनिक तौर पर दिए जाने चाहिए। यह एक सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है कि अंग्रेजों के जमाने का यह ऐतिहासिक पुल मरम्मत के लिए बंद किया जाता है, और मरम्मत के लिए तय अवधि से पहले ही बिना स्थानीय प्रशासन की औपचारिक मंजूरी लिए और बिना फिटनेस सर्टिफिकेट हासिल किए खोल दिया जाता है और लोग पुल पर पहले की तरह जाने लगते हैं। उनसे बाकायदा टिकट वसूला जाने लगता है।  इस पुल की अधिकतम क्षमता सौ सवा सौ लोगों की बताए जाने के बावजूद चार सौ लोगों को पुल पर जाने की इजाजत कैसे दे दी गई? ये सब ऐसे तथ्य हैं जिन्हें न तो झुठलाया जा सकता है और न ही अनदेखा किया जा सकता है। 
हैरत की बात यह भी है कि गुजरात सरकार के कई सीनियर मंत्री जो घटनास्थल पर ही डेरा डाले हैं, वे भी सार्वजनिक तौर पर उठाए जा रहे इन सवालों के संतोषजनक जवाब देने के बजाय यह रस्मी वाक्य बोलकर काम चला रहे हैं कि जांच समिति गठित कर दी गई है और उसमें जो भी दोषी पाया जाएगा, उसे बख्शा नहीं जाएगा। सवाल यह है कि जो तथ्य रेकॉर्ड पर हैं उन्हें सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है? सवाल यह भी है कि इस पुल की मरम्मत का ठेका उस कंपनी को दिया गया, जो बल्ब और घड़ी सुधारनेे का काम करती है। यानि एकदम उलट। ठेका किसने और कैसे दिया गया? जवाब तो इसका भी आना चाहिए। क्या बिना प्रशासन की जानकारी के इतने लोग पुल पर एकत्र हो गए? कैसे हो गए? कौन लोग थे जो टिकट देकर पैसे ले रहे थे? इतनी संख्या में लोग थे तो सुरक्षा की क्या व्यवस्था थी? और पुलिस प्रशासन क्या कर रहा था? 
सच तो यह है कि इतनी सारी अनियमितताएं सत्ताकेंद्रों की जानकारी और अनुमति के बिना नहीं हो सकतीं। आखिर कोई मरम्मत कराने वाली कंपनी संबंधित सरकारी विभागों की अनुमति के बिना पुल शुरू करने का फैसला कैसे कर सकती है, अगर उसे ताकतवर लोगों का आशीर्वाद न हासिल हो? अगर मोरबी के लोगों को यह पता चल जाता है कि पुल खुल चुका है और वे टिकट लेकर पुल पर जाने लगते हैं तो यह कैसे संभव है कि नगरपालिका अधिकारियों को यह न पता हो? सुधार कार्य का ठेका सबसे बड़ा सवाल है। दुर्घटना से यह बात तो साफ होती है कि कहीं न कहीं उनकी मिलीभगत है। जांच के बाद बख्शा तो तब जाएगा न, जब जांच सही दिशा में हो। जो खुद जिम्मेदार हैं, ऐसे अधिकारियों के पद पर रहते हुए विश्वसनीय जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पुल टूटने का यह केवल स्थानीय मामला नहीं है, अपितु देश की प्रशासनिक व्यवस्था की विश्वसनीयता बचाने का भी सवाल है। 
फिर जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई हमारी कमी निकालता है, तो हम कहते हैं कि यह साजिश है। हर जगह भ्रष्टाचार और लापरवाही का बोलबाला है, गुजरात हो या मध्यप्रदेश या फिर कोई और राज्य। सडक़ों से लेकर पुल तक बनाने में न केवल लापरवाही होती है, अपितु भारी कमीशनबाजी और भ्रष्टाचार भी। राष्ट्रीय राजमार्ग में टोल टैक्स के नाम पर भारी लूट केवल इस नाम पर की जाती है कि बेहतर सडक़ें बनाई गई हैं, लेकिन उसमें भी पैबंदों का राज है। पुल-पुलिया मौत का सामान बन गए हैं। सरकार कहीं भी जनता में अपना भरोसा कायम नहीं कर पा रही है। कम से कम ऐसे मामलों को तो बख्शें, ये मौतें जिम्मेदारों को सुकून की नींद कैसे दे सकेंगी?
-

0/Post a Comment/Comments