संजय सक्सेना
वित्त मंत्रालय की समीक्षा में भारत का अंतर्राष्ट्रीय भूख सूचकांक में स्थान के साथ ही कुपोषण और बेरोजगारी के आंकड़े तो सामने आए हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इन मुद्दों को गंभीरता से लिया गया। देश में बेरोजगारी दर 8.02 प्रतिशत है। यूएनडीपी और ऑक्सफोर्ड एचडीआई यानि मानवाधिकार सूचकांक ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी करके अनुमान व्यक्त किया कि 2020 में भारत में 22.8 करोड़ लोग गरीब थे। महामारी के वर्षों में यह आंकड़ा और बढ़ गया। अंतर्राष्ट्रीय भूख यानि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 121 देशों में भारत का स्थान 107वां है, जो पिछले आठ वर्षों में कम हुआ है, लेकिन यह कहीं से संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। भारत में 16.3 प्रतिशत कुपोषित हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है। 19.3 फीसदी बच्चे कमजोर हैं, 35.5 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं। बेरोजगारी दर का आलम यह है कि हाल ही में उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार की ग्रेड-सी की कुछ हजार नौकरियों की परीक्षाओं में सम्मिलित होने के लिए 37 लाख अभ्यर्थियों की भीड़ बसों और ट्रेनों में उमड़ पड़ी थी, ताकि वे परीक्षा केंद्रों तक पहुंच सकें। इसने दिखाया कि सिर्फ एक राज्य में ही ग्रेजुएट युवाओं में बेरोजगारी का क्या आलम है। गरीबों के लिए एकमात्र सुरक्षा कवच मनरेगा 2020-21 में रोजगार चाहने वाले 40 प्रतिशत परिवारों को एक दिन का काम नहीं दे सका।
दुखद पहलू यह है कि मासिक समीक्षा में बेरोजगारी, कुपोषण, भूख और गरीबी के मुद्दों पर सहानुभूति तक नहीं दिखाई गई। और न ही यह वैश्विक मंदी, वि-वैश्वीकरण, संरक्षणवाद, उच्च ब्याज दरों, मुद्रास्फीति और मुद्रा मूल्यह्रास की विपरीत परिस्थितियों को स्वीकार करने को तैयार है। पिछले 22 अक्टूबर को वित्त मंत्रालय ने आर्थिक स्थिति पर चेतावनी दी और कहा कि यह उत्सव और शालीनता का समय नहीं है, लेकिन समीक्षा में इसके उलट रुख अपनाया गया। आर्थिक क्षेत्र उम्मीद कर रहे था कि 2022 की समीक्षा, जो 22 अक्तूबर, 2022 को जारी हुई, अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति और ताकत तथा कमजोरियों का उद्देश्यपरक अर्द्ध वार्षिकी लेखा-जोखा प्रस्तुत करेगी। यह इंगित किया जाएगा कि अगले छह से बारह महीनों के दौरान अर्थव्यवस्था की दिशा क्या हो सकती है। उन चुनौतियों की पहचान की जाएगी, जिनका सामना अर्थव्यवस्था को करना पड़ सकता है। और वैश्विक अर्थव्यवस्था के रुझानों और घरेलू अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव को दिखाएगी। इससे ऐसा माना जा रहा है कि बेरोजगारी, कुपोषण, भूख और गरीबी सरकार की चिंताओं में शामिल नहीं हैं।
कहीं न कहीं यह समझ आ रहा है कि लगातार राज्यों के चुनावों और उपचुनावों को देखते हुए राजनीतिक पार्टियों और सरकारों की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। अभी हिमाचल और गुजरात के चुनाव आ रहे हैं। हिमाचल की तो घोषणा हो चुकी है, गुजरात की होने वाली है। इसके बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित चार राज्यों के चुनाव आने वाले हैं और फिर आम चुनाव। सरकारों में बैठी राजनीतिक पार्टियों का यही प्रयास रहता आया है कि जनता का ध्यान किसी भी तरह से मूल मुद्दों से हटाया जाए। यही कारण है कि जाति, धर्म और संप्रदाय से जुड़े मुद्दों का प्रसार किया जा रहा है।
जनता को इसी में उलझा कर रखने के प्रयास चल रहे हैं और इसमें सफलता भी मिलती दिख रही है। जो भी बेरोजगारी, भूख, कुपोषण या आर्थिक मुद्दों की बात करता है, उसे हाशिए पर धकेलने के प्रयास किए जाते हैं। सोशल मीडिया और गोदी मीडिया पर उसके खिलाफ बाकायदा अभियान चलाया जाता है। सर्वे और समीक्षा के दौरान जो भी नकारात्मक बातें आती हैं, उन्हें नकारने का अभियान चलाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की रिपोर्ट को यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि भारत के खिलाफ साजिश की जा रही है। और जनता भी मान जाती है। परंतु यह देश के लिए विडम्बना है। जब तक लोग समझेंगे, तब तक देर हो चुकी होगी।
Post a Comment