समाज में हैवानियत इतनी हावी हो गई है कि अब हम मासूम बच्चियों को ही शिकार बनाने लगे हैं। और मध्यप्रदेश तो जैसे मासूमों के प्रति होने वाले अपराधों का कीर्तिमान रचने की होड़ में लगा हुआ है। राजधानी भोपाल में ही नर्सरी में पढऩे वाली साढ़े तीन साल की बच्ची से दुष्कर्म का सनसनीखेज मामला सामने आया है। नीलबड़ स्थित बिलाबॉन्ग हाई इंटरनेशनल स्कूल की नर्सरी में पढऩे वाली इस छात्रा से स्कूल बस के ड्राइवर ने बस में ही दुष्कर्म किया।
घटना का ब्यौरा तो दुबारा पढऩे या लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं, लेकिन शिकायत पर स्कूल प्रबंधन और प्राचार्य का जो शुरुआती रवैया रहा, उसे देखकर हैरानी नहीं, बहुत दुख हो रहा है। कहने को महिला थाना पुलिस ने आरोपी बस ड्राइवर को हिरासत में ले लिया है। उससे पूछताछ की जा रही है। उस पर दुष्कर्म और पॉक्सो एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया है। साथ ही बस की दीदी से पूछताछ की जा रही है। पुलिस ने बच्ची का मेडिकल भी करवाया है। लेकिन एक मासूम बच्ची ने मां के सामने जो भी कहा, वो सुनकर जैसे कानों में पिघला हुआ सीसा उतर गया हो।
विचारणीय बात यह है कि आखिर हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है, जो हैवानियत की हदें पार करने को तैयार हो जाते हैं? कानून, कड़ी सजाओं का आखिर इन्हें भय क्यों नहीं है? क्या मासूमों के साथ गलत हरकत इन्हें इतना सुख देती है कि वे राक्षसी रूप धारण कर लेते हैं? मध्यप्रदेश लगातार मासूम बच्चियों से दुष्कर्म और अन्य अपराधों के मामले में अग्रणी आ रहा है। ऐसे अपराधों का ग्राफ बढ़ रहा है। कहा यह जाता है कि यहां आसानी से रिपोर्ट दर्ज कर ली जाती है, पर सच्चाई यह भी है कि आधे से अधिक मामलों की रिपोर्ट दर्ज नहीं होती। हां, यह हो सकता है कि कुछ मामलों में झूठी रिपोर्ट भी लिखवाई जाती हो। लेकिन मासूमों से हरकत या दुष्कर्म के मामलों में शायद ही ऐसा होता हो। बच्चे छोटे-मोटे मामलों में तो बताते ही नहीं हैं और कुछ गलत भी होता है तो कई बार घर पर बताने में डरते हैं।
ऐसे अपराधों के साथ ही प्रदेश से बच्चियों के गायब होने और उन्हें गलत कामों में धकेलने की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी के आंकड़े आ रहे हैं। एनसीआरबी 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक एमपी में हर साल 6 हजार से अधिक गुमशुदगी दर्ज हो रही हैं। इसमें 1400 से अधिक केस नाबालिग बच्चियों के शामिल हैं, पर पुलिस इसमें से 40 प्रतिशत बच्चियों को ही ढूंढ पाती है। इसमें से भी अधिकतर की जिंदगी बर्बाद हो चुकी होती है। कारण है कि नाबालिग उम्र में ही कई मां बन चुकी होती है। कुछ को देह व्यापार के दलदल में धकेल दिया गया होता है। प्रदेश में ओडिशा, बंगाल और झारखंड से लड़कियां खरीद कर लाई जाती हैं। वहीं, प्रदेश के अंदर अधिक सेक्स रेशियो वाले जिलों में शामिल अलीराजपुर, बालाघाट, डिंडौरी, मंडला, बैतूल, छिंदवाड़ा की लड़कियों को खरीदा-बेचा जाता है। इसमें से अधिकतर मामले में कोई करीबी ही इन्हें बहला-फुसलाकर बेच देता है। बैतूल का तो ऐसा भी मामला आया कि वहां की पुलिस अधीक्षक ने बच्चियों की रिकवरी की गलत रिपोर्ट सौंपकर सरकार से सम्मान भी करवा लिया। बच्चियों का पता नहीं और एक महिला अधिकारी शाबासी ले रही है। क्या ऐसे अधिकारियों को शाबासी मिलना चाहिए?
सवाल सरकार पर भी उठना स्वाभाविक है और हमारी पुलिस पर भी। ये नहीं कहा जा सकता कि कौन जिम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा पा रहा है। परंतु सबसे बड़ा सवाल तो समाज पर उठता है। हम जितना महिलाओं की बराबरी की बात कर रहे हैं। उन्हें हर क्षेत्र में आगे लाने के लिए उनके लिए आरक्षण तक कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, समाज में मानसिक विकृतियां और पाशविकता बढ़ रही है। यह आज के उस समाज के लिए बड़ी चुनौती है, जो कथित तौर पर पढ़ा लिखा है। कथित तौर पर आधुनिकता का चोला ओढ़े हुए है। जो कथित तौर पर विकास और सामाजिक समरसता की बात करता है।
आखिर हम जा कहां रहे हैं? विकास के आसमान की ओर या फिर मानसिक विकृतियों को ओढक़र विनाश के पाताल की तरफ? एक तरफ हम जाति और संप्रदाय के झगड़ों को बढ़ाते जा रहे हैं, हमारा पागलपन बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ हमारे समाज के ही, हमारे कथित अपने ही लोग हमारी नई पीढ़ी के मासूमों को अपना शिकार बना रहे हैं। अंग्रेजी शब्द में, ह्यूमन टै्रफिकिंग भी बढ़ रही है। तो क्या हमारे पास कोई उपाय नहीं है, इस अंधेरे से निकलने का? क्या समाज इसी तरह के पागलपन में आधुनिकता और विकास की बलि चढ़ा देगा? सोचना होगा। मनन करना होगा। ठोस कदम उठाने होंगे। केवल सख्त कानून काफी नहीं है। कई बार गलत लोगों को भी कानून सजा दे देता है। इसलिए सामाजिक संरचना में आ रही विकृतियों को दूर करने के लिए विकल्प तलाशने होंगे। विश्व गुरू बनने की बात करने वालों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है। परंपराओं, सभ्यता और संस्कृति-संस्कारों की बात करने वालों के लिए बड़ी जिम्मेदारी है। इन मुद्दों पर राजनीति करने वालों के मुंह पर तो तमाचा ही है। दूसरे देशों में ऐसी खबरें छपती हैं या रिपोर्ट आती हैं, तो हमें बुरा लगता है। हम उन्हें खारिज करने लगते हैं। लेकिन गिरेबान में झांक कर नहीं देखना चाहते। शायद यही भावना, झूठा अहम, असत्य गर्वोक्ति ही हमें इस गर्त में धकेल रहा है।
-संजय सक्सेना
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