क्या यह बहुत ही शर्मनाक बात नहीं है कि मध्यप्रदेश नाबालिग लड़कियों से दुष्कर्म के मामले में फिर नंबर वन आया है। जहां मुख्यमंत्री हर कार्यक्रम के पहले कन्या पूजन करते हैं, जिस राज्य ने देश को लाड़ली लक्ष्मी और कन्यादान जैसी योजनाएं दीं हों, वह राज्य कन्याओं के साथ दुष्कर्म में देश में अव्वल आ रहा है। बहुत ही गंभीर बात है। और इसके लिए भी यदि हम केवल सरकार के मत्थे दोष मढ़ते हैं, तो यह भी ठीक नहीं होगा।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो यानि एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट में यह शर्मनाक खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार 2021 में देश में नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म के 33036 तो मप्र में 3515 मामले दर्ज हुए। जबकि कुल ज्यादती के 6462 मामले मप्र में ही हुए। इनमें बालिग, बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल हैं। आंकडे बताते हैं कि प्रदेश में हर तीन घंटे में एक बच्ची से दुष्कर्म हुआ। साल 2020 में भी यही स्थिति थी। तब 5598 दुष्कर्म के केस रजिस्टर हुए थे, इनमें 3259 नाबालिग बच्चियों के थे। तब भी मप्र देश में नंबर वन था। वहीं, दिल्ली देश में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर है। यहां 2020 में महिलाओं के खिलाफ 9,782 अपराध दर्ज किए गए थे, जो 2021 में 40 प्रतिशत बढक़र 13,892 हो गए। दिल्ली में 2021 में हर दिन दो नाबालिग लड़कियां दुष्कर्म का शिकार बनीं।
पूरे देश की बात करें तो रिपोर्ट बताती है कि देश में गंभीर अपराध 20 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं। 2021 में 36.63 लाख आपराधिक केस दर्ज हुए। इस दौरान अपराध दर 368 अपराध प्रति एक लाख व्यक्ति रही। हालांकि 2020 में 42.54 लाख केस दर्ज हुए थे। 2020 की तुलना में देश में आत्महत्या के मामले 7.2 प्रतिशत तक बढ़े हैं। आत्महत्या के 1.64 लाख मामले दर्ज किए गए। 2020 में ये 1.53 लाख थे। 2021 में प्रति 10 लाख व्यक्तियों में देश में 120 लोगों ने आत्महत्या की। ये आत्महत्या का रिकॉर्ड स्तर है। ये 1967 के बाद सबसे ज्यादा है।
मध्यप्रदेश में आदिवासियों की संख्या काफी है और हम कई दशकों से उन्हें मुख्य धारा में लाने की बात कर रहे हैं। उन्हें सुरक्षा देने की बात कर रहे हैं। करोड़ों-अरबों के पैकेज भी स्वाहा हो चुके हैं, लेकिन हमारे ही प्रदेश में आदिवासियों पर अत्याचार कम नहीं हुए। अपितु रिपोर्ट कहती है कि आदिवासियों तथा दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में भी मध्यप्रदेश शिखर पर है। 2021 में यहां एससी/एसटी एक्ट के तहत 2627 मामले दर्ज हुए। यह 2020 की तुलना में करीब 9.38 प्रतिशत ज्यादा हैं। 2020 में 2401 मामले आए थे। दलितों से अत्याचार के कुल 7214 मामले दर्ज हुए। मतलब हम दलित-आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार भी कम नहीं कर पाए हैं।
आंकड़ों को लेकर वाद विवाद किया जाता है, लेकिन यहां तो वो आंकड़े दिए जाते हैं, जो रिपोर्ट के तौर पर दर्ज हुए हैं। जिन मामलों की रिपोर्ट दर्ज नहीं होती, वो अलग हैं। हालांकि यह भी कह दिया जाता है कि कई रिपोर्ट झूठी होती हैं। हो सकता है, लेकिन यह तो सच है कि जिनकी रिपोर्ट लिखी या लिखवाई नहीं जाती, वो मामले भी सैकड़ों या हजारों में भी हो सकते हैं। खैर, मुद्दा यह नहीं कि कितनी रिपोर्ट झूठी हैं और कितनी दर्ज नहीं हो रही हैं, कहीं न कहीं यौन शोषण की घटनाओं में बढ़ोत्तरी तो होती दिख ही रही है। हमारा सामाजिक तानाबाना कुछ इस तरह बिखरता दिख रहा है कि परिवार नाम की इकाई का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। हम पहले संप्रदाय और अब जातियों में विभाजित होते जा रहे हैं। हर क्षेत्र में आरक्षण भी कहीं न कहीं इन मामलों के पीछे एक कारण माना जाता है, भले ही वह छोटा कारण हो। फिर भी, सरकार और सामाजिक संगठनों को इन आंकड़ों को गंभीरता से लेना चाहिए।
आलोचना किसी की भी की जा सकती है, आरोप-प्रत्यारोप भी राजनीति का हिस्सा हैं, लेकिन अपराध और विशेष तौर पर बच्चियों से होने वाले यौन अपराध तो हमारे समाज के लिए कलंक हैं। बेहद शर्मनाक हैं। क्या हम समाज को अपराध के गर्त में डालना चाहते हैं। इतिहास गवाह है कि हर युग में समाज सुधारकों ने जन्म लिया है, उनकी भूमिका रही है, लेकिन आज के समाज सुधारक केवल प्रचारतंत्र के सहारे चल रहे हैं। जमीन पर उनकी भूमिका नगण्य सी ही लग रही है। सामाजिक संगठनों की राजनीति में रुचि बढ़ रही है, वे जाति की आबादी के आधार पर टिकट और पद तो मांग लेते हैं, लेकिन समाज में बढ़ रही कुरीतियों की तरफ उनका ध्यान बहुत नहीं जाता। यह काम केवल बयानों और प्रेस विज्ञप्तियों तक ही सिमट कर रह गया है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो समाज की बर्बादी तय है। उम्मीद की किरण दिखाई दे, इसकी भी उम्मीद ही कर सकते हैं।
-संजय सक्सेना
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