-संजय सक्सेना
देश में बढ़ती मुफ्तखोरी पर लगेगी लगाम?को अर्थव्यवस्था को डुबो कर रख देगी? यह सवाल भी है और इसकी पूरी संभावना भी है। शायद तभी राजनीतिक दलों को इसकी चिंता होने लगी है। बात चुनावों में वोटरों को लुभाने की हो, या फिर अधिक से अधिक समय तक सत्ता में बने रहने की, मुफ्त का सब्जबाग दिखाना सफलता का शॉर्टकट बन गया है। इसे जीत की गारंटी माना जाने लगा है, लेकिन इसकी कितनी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है, यह न तो आम आदमी जानता है और न ही इसका अहसास निचले स्तर के नेताओं-कार्यकर्ताओं को है।
विगत माह केबिनेट सचिवों की बैठक में यह मुद्दा काफी जोर शोर से उठा। और अब राजनीति के इस ट्रेंड के खतरों को लेकर नए सिरे से बहस प्रारंभ हो गई हुई है। बहस की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उन्होंने मुफ्त की रेवड़ी की बात कहकर इस बहस को उठाया। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह इस मामले में कोई गाइडलाइन बना सकती है? दरअसल श्रीलंका में ध्वस्त हुई आर्थिक व्यवस्था और उसके बाद उपजी अराजकता ने इस चिंता बढ़ा दिया है। बात यह सामने आई है कि अगर सरकारें संतुलित और व्यवस्थित तरीके से आर्थिक सिस्टम को कंट्रोल नहीं करेंगी, तो आने वाले समय में श्रीलंका जैसे हालात कहीं भी बन सकते हैं। सवाल है कि क्या इससे तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारें सीख लेंगी?
मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण बना, क्योंकि पहले कई मौकों पर इसे रोकने की कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन वोट के लालच में सफल नहीं हुईं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले भी कई बार हस्तक्षेप किए गए हैं। पूर्व चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने एक मामले में चुनावी घोषणापत्र को महज कागज का टुकड़ा बताते हुए कहा था कि चुनाव बाद सभी राजनीतिक दल इसे भूल जाते हैं। यह उनका कोई सामान्य स्टेटमेंट नहीं था। चुनाव सुधार के इस अहम हिस्से को जिस तरह से राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज किया, उससे उपजा फ्रस्ट्रेशन भी इसमें झलक रहा था।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ने राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को कानूनी कवच देने और इसे जवाबदेह बनाने की पहल की है। लेकिन राजनीतिक दलों के प्रतिरोध के कारण यह पहल अभी तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2013 को दिए अहम फैसले में चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों से बात करके घोषणापत्र के बारे में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करने को कहा था। इसके बाद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के नेतृत्व में सभी राजनीतिक दलों की मीटिंग बुलाई गई थी। इस मीटिंग में 6 राष्ट्रीय दलों के अलावा 24 क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने भाग लिया। यहां सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में चुनावी घोषणापत्र को लेकर आयोग के अंकुश को खारिज कर दिया था। हालांकि इसके बाद भी आयोग ने सरकार के पास चुनाव सुधार से जुड़े जो प्रस्ताव भेजे, उनमें इस बारे में अपनी राय जाहिर कर दी थी। प्रस्ताव में था कि चुनावी घोषणापत्र को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया जाएगा। और आदर्श आचार संहिता चुनावों के छह महीने लागू कर जाएगी, ताकि कोई भी सरकार नई योजनाओं का ऐलान नहीं कर पाए। साथ ही आयोग को घोषणापत्र पर स्पष्टीकरण लेने का अधिकार भी होगा। चुनाव आयोग ऐसे घोषणापत्रों पर अंकुश लगा सकता है, जिसका न कोई आधार हो, ना उन्हें पूरा करना संभव हो।
दक्षिण भारतीय राज्यों में मुफ्तखोरी का ट्रेंड पहले शुरू हुआ। 2006 में डीएमके ने वहां गरीबों को टीवी सेट और 2 रुपये किलो चावल देने का वादा किया, जिसके बाद करुणानिधि सत्ता में आए। आगे चलकर जयललिता ने भी दो रुपये किलो चावल के जरिए अपनी जीत की राह खोली। इसके बाद यह ट्रेंड पूरे देश में आ आ गया। मध्यप्रदेश में तो एक रुपए किलो गेहूं, दो रुपए किलो चावल के साथ ही मुफ्त में यात्राओं की योजनाएं भी चुनावी वायदों में शामिल कर बाद में लागू की गईं। हाल यह है कि प्रदेश पर तीन लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज चढ़ गया। भाजपा को सबसे धक्का केजरीवाल की मुफ्त बिजली का लगा, लेकिन मध्यप्रदेश जैसे राज्य में बहुत पहले से बीपीएल के लिए मुफ्त बिजली थी। फिर एक सीमा बनाकर सौ रुपए बिल किया गया। लेकिन इसका भार दूसरे उपभोक्ताओं पर पड़ा। जबकि केजरीवाल और पंजाब की सरकारें दावा कर रही हैं कि उनकी मुफ्त बिजली का भार किसी पर नहीं पड़ रहा है।
अभी जिस तरह पुरानी पेंशन योजना को लेकर कांग्रेस आगे बढ़ी, उससे ऐसी चिंता व्यक्त की गई कि इसका दबाव दूसरी सरकारों पर भी बढ़ सकता है। इसी तरह 2019 में आम चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में हर साल 6000 रुपये देने शुरू किए। कोविड के बाद देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का सिलसिला जारी है। मुफ्त चीजें देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि राज्यों का बजट घाटा लगातार बढ़ता चला जा रहा है। ताजा सूचनाओं के अनुसार कम से कम एक दर्जन राज्यों का बजट घाटा चिंताजनक स्तर पर जा चुका है, जहां अब तत्काल हस्तक्षेप करने की जरूरत हो सकती है। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने तो मुफ्तखोरी बंद करने की शुरुआत सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सभी सुविधाओं से करने की सलाह दे रहे हैं। वास्तव में इस पर बहस और तेज हो, साथ ही आने वाले चुनावों से ही मुफ्तखोरी के वायदे और योजनाएं बंद होना चाहिए।
देश में बढ़ती मुफ्तखोरी को अर्थव्यवस्था को डुबो कर रख देगी? यह सवाल भी है और इसकी पूरी संभावना भी है। शायद तभी राजनीतिक दलों को इसकी चिंता होने लगी है। बात चुनावों में वोटरों को लुभाने की हो, या फिर अधिक से अधिक समय तक सत्ता में बने रहने की, मुफ्त का सब्जबाग दिखाना सफलता का शॉर्टकट बन गया है। इसे जीत की गारंटी माना जाने लगा है, लेकिन इसकी कितनी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है, यह न तो आम आदमी जानता है और न ही इसका अहसास निचले स्तर के नेताओं-कार्यकर्ताओं को है।
विगत माह केबिनेट सचिवों की बैठक में यह मुद्दा काफी जोर शोर से उठा। और अब राजनीति के इस ट्रेंड के खतरों को लेकर नए सिरे से बहस प्रारंभ हो गई हुई है। बहस की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उन्होंने मुफ्त की रेवड़ी की बात कहकर इस बहस को उठाया। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह इस मामले में कोई गाइडलाइन बना सकती है? दरअसल श्रीलंका में ध्वस्त हुई आर्थिक व्यवस्था और उसके बाद उपजी अराजकता ने इस चिंता बढ़ा दिया है। बात यह सामने आई है कि अगर सरकारें संतुलित और व्यवस्थित तरीके से आर्थिक सिस्टम को कंट्रोल नहीं करेंगी, तो आने वाले समय में श्रीलंका जैसे हालात कहीं भी बन सकते हैं। सवाल है कि क्या इससे तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारें सीख लेंगी?
मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण बना, क्योंकि पहले कई मौकों पर इसे रोकने की कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन वोट के लालच में सफल नहीं हुईं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले भी कई बार हस्तक्षेप किए गए हैं। पूर्व चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने एक मामले में चुनावी घोषणापत्र को महज कागज का टुकड़ा बताते हुए कहा था कि चुनाव बाद सभी राजनीतिक दल इसे भूल जाते हैं। यह उनका कोई सामान्य स्टेटमेंट नहीं था। चुनाव सुधार के इस अहम हिस्से को जिस तरह से राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज किया, उससे उपजा फ्रस्ट्रेशन भी इसमें झलक रहा था।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ने राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को कानूनी कवच देने और इसे जवाबदेह बनाने की पहल की है। लेकिन राजनीतिक दलों के प्रतिरोध के कारण यह पहल अभी तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2013 को दिए अहम फैसले में चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों से बात करके घोषणापत्र के बारे में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करने को कहा था। इसके बाद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के नेतृत्व में सभी राजनीतिक दलों की मीटिंग बुलाई गई थी। इस मीटिंग में 6 राष्ट्रीय दलों के अलावा 24 क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने भाग लिया। यहां सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में चुनावी घोषणापत्र को लेकर आयोग के अंकुश को खारिज कर दिया था। हालांकि इसके बाद भी आयोग ने सरकार के पास चुनाव सुधार से जुड़े जो प्रस्ताव भेजे, उनमें इस बारे में अपनी राय जाहिर कर दी थी। प्रस्ताव में था कि चुनावी घोषणापत्र को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया जाएगा। और आदर्श आचार संहिता चुनावों के छह महीने लागू कर जाएगी, ताकि कोई भी सरकार नई योजनाओं का ऐलान नहीं कर पाए। साथ ही आयोग को घोषणापत्र पर स्पष्टीकरण लेने का अधिकार भी होगा। चुनाव आयोग ऐसे घोषणापत्रों पर अंकुश लगा सकता है, जिसका न कोई आधार हो, ना उन्हें पूरा करना संभव हो।
दक्षिण भारतीय राज्यों में मुफ्तखोरी का ट्रेंड पहले शुरू हुआ। 2006 में डीएमके ने वहां गरीबों को टीवी सेट और 2 रुपये किलो चावल देने का वादा किया, जिसके बाद करुणानिधि सत्ता में आए। आगे चलकर जयललिता ने भी दो रुपये किलो चावल के जरिए अपनी जीत की राह खोली। इसके बाद यह ट्रेंड पूरे देश में आ आ गया। मध्यप्रदेश में तो एक रुपए किलो गेहूं, दो रुपए किलो चावल के साथ ही मुफ्त में यात्राओं की योजनाएं भी चुनावी वायदों में शामिल कर बाद में लागू की गईं। हाल यह है कि प्रदेश पर तीन लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज चढ़ गया। भाजपा को सबसे धक्का केजरीवाल की मुफ्त बिजली का लगा, लेकिन मध्यप्रदेश जैसे राज्य में बहुत पहले से बीपीएल के लिए मुफ्त बिजली थी। फिर एक सीमा बनाकर सौ रुपए बिल किया गया। लेकिन इसका भार दूसरे उपभोक्ताओं पर पड़ा। जबकि केजरीवाल और पंजाब की सरकारें दावा कर रही हैं कि उनकी मुफ्त बिजली का भार किसी पर नहीं पड़ रहा है।
अभी जिस तरह पुरानी पेंशन योजना को लेकर कांग्रेस आगे बढ़ी, उससे ऐसी चिंता व्यक्त की गई कि इसका दबाव दूसरी सरकारों पर भी बढ़ सकता है। इसी तरह 2019 में आम चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में हर साल 6000 रुपये देने शुरू किए। कोविड के बाद देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का सिलसिला जारी है। मुफ्त चीजें देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि राज्यों का बजट घाटा लगातार बढ़ता चला जा रहा है। ताजा सूचनाओं के अनुसार कम से कम एक दर्जन राज्यों का बजट घाटा चिंताजनक स्तर पर जा चुका है, जहां अब तत्काल हस्तक्षेप करने की जरूरत हो सकती है। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने तो मुफ्तखोरी बंद करने की शुरुआत सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सभी सुविधाओं से करने की सलाह दे रहे हैं। वास्तव में इस पर बहस और तेज हो, साथ ही आने वाले चुनावों से ही मुफ्तखोरी के वायदे और योजनाएं बंद होना चाहिए।
-संजय सक्सेना
विगत माह केबिनेट सचिवों की बैठक में यह मुद्दा काफी जोर शोर से उठा। और अब राजनीति के इस ट्रेंड के खतरों को लेकर नए सिरे से बहस प्रारंभ हो गई हुई है। बहस की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उन्होंने मुफ्त की रेवड़ी की बात कहकर इस बहस को उठाया। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह इस मामले में कोई गाइडलाइन बना सकती है? दरअसल श्रीलंका में ध्वस्त हुई आर्थिक व्यवस्था और उसके बाद उपजी अराजकता ने इस चिंता बढ़ा दिया है। बात यह सामने आई है कि अगर सरकारें संतुलित और व्यवस्थित तरीके से आर्थिक सिस्टम को कंट्रोल नहीं करेंगी, तो आने वाले समय में श्रीलंका जैसे हालात कहीं भी बन सकते हैं। सवाल है कि क्या इससे तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारें सीख लेंगी?
मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण बना, क्योंकि पहले कई मौकों पर इसे रोकने की कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन वोट के लालच में सफल नहीं हुईं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले भी कई बार हस्तक्षेप किए गए हैं। पूर्व चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने एक मामले में चुनावी घोषणापत्र को महज कागज का टुकड़ा बताते हुए कहा था कि चुनाव बाद सभी राजनीतिक दल इसे भूल जाते हैं। यह उनका कोई सामान्य स्टेटमेंट नहीं था। चुनाव सुधार के इस अहम हिस्से को जिस तरह से राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज किया, उससे उपजा फ्रस्ट्रेशन भी इसमें झलक रहा था।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ने राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को कानूनी कवच देने और इसे जवाबदेह बनाने की पहल की है। लेकिन राजनीतिक दलों के प्रतिरोध के कारण यह पहल अभी तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2013 को दिए अहम फैसले में चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों से बात करके घोषणापत्र के बारे में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करने को कहा था। इसके बाद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के नेतृत्व में सभी राजनीतिक दलों की मीटिंग बुलाई गई थी। इस मीटिंग में 6 राष्ट्रीय दलों के अलावा 24 क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने भाग लिया। यहां सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में चुनावी घोषणापत्र को लेकर आयोग के अंकुश को खारिज कर दिया था। हालांकि इसके बाद भी आयोग ने सरकार के पास चुनाव सुधार से जुड़े जो प्रस्ताव भेजे, उनमें इस बारे में अपनी राय जाहिर कर दी थी। प्रस्ताव में था कि चुनावी घोषणापत्र को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया जाएगा। और आदर्श आचार संहिता चुनावों के छह महीने लागू कर जाएगी, ताकि कोई भी सरकार नई योजनाओं का ऐलान नहीं कर पाए। साथ ही आयोग को घोषणापत्र पर स्पष्टीकरण लेने का अधिकार भी होगा। चुनाव आयोग ऐसे घोषणापत्रों पर अंकुश लगा सकता है, जिसका न कोई आधार हो, ना उन्हें पूरा करना संभव हो।
दक्षिण भारतीय राज्यों में मुफ्तखोरी का ट्रेंड पहले शुरू हुआ। 2006 में डीएमके ने वहां गरीबों को टीवी सेट और 2 रुपये किलो चावल देने का वादा किया, जिसके बाद करुणानिधि सत्ता में आए। आगे चलकर जयललिता ने भी दो रुपये किलो चावल के जरिए अपनी जीत की राह खोली। इसके बाद यह ट्रेंड पूरे देश में आ आ गया। मध्यप्रदेश में तो एक रुपए किलो गेहूं, दो रुपए किलो चावल के साथ ही मुफ्त में यात्राओं की योजनाएं भी चुनावी वायदों में शामिल कर बाद में लागू की गईं। हाल यह है कि प्रदेश पर तीन लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज चढ़ गया। भाजपा को सबसे धक्का केजरीवाल की मुफ्त बिजली का लगा, लेकिन मध्यप्रदेश जैसे राज्य में बहुत पहले से बीपीएल के लिए मुफ्त बिजली थी। फिर एक सीमा बनाकर सौ रुपए बिल किया गया। लेकिन इसका भार दूसरे उपभोक्ताओं पर पड़ा। जबकि केजरीवाल और पंजाब की सरकारें दावा कर रही हैं कि उनकी मुफ्त बिजली का भार किसी पर नहीं पड़ रहा है।
अभी जिस तरह पुरानी पेंशन योजना को लेकर कांग्रेस आगे बढ़ी, उससे ऐसी चिंता व्यक्त की गई कि इसका दबाव दूसरी सरकारों पर भी बढ़ सकता है। इसी तरह 2019 में आम चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में हर साल 6000 रुपये देने शुरू किए। कोविड के बाद देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का सिलसिला जारी है। मुफ्त चीजें देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि राज्यों का बजट घाटा लगातार बढ़ता चला जा रहा है। ताजा सूचनाओं के अनुसार कम से कम एक दर्जन राज्यों का बजट घाटा चिंताजनक स्तर पर जा चुका है, जहां अब तत्काल हस्तक्षेप करने की जरूरत हो सकती है। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने तो मुफ्तखोरी बंद करने की शुरुआत सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सभी सुविधाओं से करने की सलाह दे रहे हैं। वास्तव में इस पर बहस और तेज हो, साथ ही आने वाले चुनावों से ही मुफ्तखोरी के वायदे और योजनाएं बंद होना चाहिए।
-संजय सक्सेना
विगत माह केबिनेट सचिवों की बैठक में यह मुद्दा काफी जोर शोर से उठा। और अब राजनीति के इस ट्रेंड के खतरों को लेकर नए सिरे से बहस प्रारंभ हो गई हुई है। बहस की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उन्होंने मुफ्त की रेवड़ी की बात कहकर इस बहस को उठाया। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह इस मामले में कोई गाइडलाइन बना सकती है? दरअसल श्रीलंका में ध्वस्त हुई आर्थिक व्यवस्था और उसके बाद उपजी अराजकता ने इस चिंता बढ़ा दिया है। बात यह सामने आई है कि अगर सरकारें संतुलित और व्यवस्थित तरीके से आर्थिक सिस्टम को कंट्रोल नहीं करेंगी, तो आने वाले समय में श्रीलंका जैसे हालात कहीं भी बन सकते हैं। सवाल है कि क्या इससे तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारें सीख लेंगी?
मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण बना, क्योंकि पहले कई मौकों पर इसे रोकने की कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन वोट के लालच में सफल नहीं हुईं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले भी कई बार हस्तक्षेप किए गए हैं। पूर्व चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने एक मामले में चुनावी घोषणापत्र को महज कागज का टुकड़ा बताते हुए कहा था कि चुनाव बाद सभी राजनीतिक दल इसे भूल जाते हैं। यह उनका कोई सामान्य स्टेटमेंट नहीं था। चुनाव सुधार के इस अहम हिस्से को जिस तरह से राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज किया, उससे उपजा फ्रस्ट्रेशन भी इसमें झलक रहा था।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ने राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को कानूनी कवच देने और इसे जवाबदेह बनाने की पहल की है। लेकिन राजनीतिक दलों के प्रतिरोध के कारण यह पहल अभी तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2013 को दिए अहम फैसले में चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों से बात करके घोषणापत्र के बारे में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करने को कहा था। इसके बाद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के नेतृत्व में सभी राजनीतिक दलों की मीटिंग बुलाई गई थी। इस मीटिंग में 6 राष्ट्रीय दलों के अलावा 24 क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने भाग लिया। यहां सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में चुनावी घोषणापत्र को लेकर आयोग के अंकुश को खारिज कर दिया था। हालांकि इसके बाद भी आयोग ने सरकार के पास चुनाव सुधार से जुड़े जो प्रस्ताव भेजे, उनमें इस बारे में अपनी राय जाहिर कर दी थी। प्रस्ताव में था कि चुनावी घोषणापत्र को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया जाएगा। और आदर्श आचार संहिता चुनावों के छह महीने लागू कर जाएगी, ताकि कोई भी सरकार नई योजनाओं का ऐलान नहीं कर पाए। साथ ही आयोग को घोषणापत्र पर स्पष्टीकरण लेने का अधिकार भी होगा। चुनाव आयोग ऐसे घोषणापत्रों पर अंकुश लगा सकता है, जिसका न कोई आधार हो, ना उन्हें पूरा करना संभव हो।
दक्षिण भारतीय राज्यों में मुफ्तखोरी का ट्रेंड पहले शुरू हुआ। 2006 में डीएमके ने वहां गरीबों को टीवी सेट और 2 रुपये किलो चावल देने का वादा किया, जिसके बाद करुणानिधि सत्ता में आए। आगे चलकर जयललिता ने भी दो रुपये किलो चावल के जरिए अपनी जीत की राह खोली। इसके बाद यह ट्रेंड पूरे देश में आ आ गया। मध्यप्रदेश में तो एक रुपए किलो गेहूं, दो रुपए किलो चावल के साथ ही मुफ्त में यात्राओं की योजनाएं भी चुनावी वायदों में शामिल कर बाद में लागू की गईं। हाल यह है कि प्रदेश पर तीन लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज चढ़ गया। भाजपा को सबसे धक्का केजरीवाल की मुफ्त बिजली का लगा, लेकिन मध्यप्रदेश जैसे राज्य में बहुत पहले से बीपीएल के लिए मुफ्त बिजली थी। फिर एक सीमा बनाकर सौ रुपए बिल किया गया। लेकिन इसका भार दूसरे उपभोक्ताओं पर पड़ा। जबकि केजरीवाल और पंजाब की सरकारें दावा कर रही हैं कि उनकी मुफ्त बिजली का भार किसी पर नहीं पड़ रहा है।
अभी जिस तरह पुरानी पेंशन योजना को लेकर कांग्रेस आगे बढ़ी, उससे ऐसी चिंता व्यक्त की गई कि इसका दबाव दूसरी सरकारों पर भी बढ़ सकता है। इसी तरह 2019 में आम चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में हर साल 6000 रुपये देने शुरू किए। कोविड के बाद देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का सिलसिला जारी है। मुफ्त चीजें देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि राज्यों का बजट घाटा लगातार बढ़ता चला जा रहा है। ताजा सूचनाओं के अनुसार कम से कम एक दर्जन राज्यों का बजट घाटा चिंताजनक स्तर पर जा चुका है, जहां अब तत्काल हस्तक्षेप करने की जरूरत हो सकती है। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने तो मुफ्तखोरी बंद करने की शुरुआत सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सभी सुविधाओं से करने की सलाह दे रहे हैं। वास्तव में इस पर बहस और तेज हो, साथ ही आने वाले चुनावों से ही मुफ्तखोरी के वायदे और योजनाएं बंद होना चाहिए।
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