पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन को लेकर हलचल मची हुई है। हाल ही में मोदी मंत्रिमंडल ने ग्लासगो में पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित पंचामृत रणनीति को उन्नत जलवायु लक्ष्यों में शामिल करते हुए मंजूरी दे दी है। इसका प्रमुख उद्देश्य भारत की अक्षय ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाने और सन 2070 तक उसे जीवाश्म आधारित ईंधन से पूरी तरह मुक्त करने के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ाना है। भारत सरकार का यह कदम जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रतिबद्धताओं और उससे जुड़े दायित्वों के प्रति उसकी गंभीरता तो दर्शाता है, लेकिन इसमें पूरी पंचामृत रणनीति लागू करने की बात नहीं कही गई है।
कुछ हलकों से यह बात भी उठ रही है कि कैबिनेट के इस ताजा कदम में भारत के अपने कमिटमेंट से पीछे खिसकने के संकेत मिल रहे हैं। असल में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ग्लासगो के कॉप 26 सत्र में दिए गए पंचामृत सूत्र में पांच प्रतिबद्धताएं घोषित की गई थीं, जबकि मंत्रिमंडल द्वारा मंजूर प्रतिबद्धताओं में केवल दो को शामिल किया गया है। ग्लासगो सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने जिन पांच प्रतिबद्धताओं की बात कही थी वे हैं- भारत 2030 तक गैर जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा क्षमता को बढ़ाकर 500 गिगावॉट तक कर लेगा, वह अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा जरूरतें अक्षय ऊर्जा से पूरी करने लगेगा, अभी से 2030 तक के कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा, इकॉनमी की कार्बन तीव्रता में 45 प्रतिशत से अधिक की कमी लाएगा और, 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल कर लेगा। पांच प्रतिबद्धताएं होने के कारण इसे पंचामृत रणनीति कहा गया।
दूसरी ओर पिछले बुधवार को कैबिनेट की स्वीकृति के बाद जो विज्ञप्ति जारी की गई, उसमें दो ही प्रतिबद्धताओं को शामिल करने की बात कही गई है- एक 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता जीडीपी के 45 प्रतिशत तक घटाना और 50 प्रतिशत जरूरतें अक्षय ऊर्जा से पूरी करना। विशेषज्ञ कहते हैं कि आलोचना करने से पहले कुछ तथ्यों पर विचार कर लेना चाहिए। पहली बात तो यह कि ये प्रतिबद्धताएं 2070 तक भारत को नेट जीरो उत्सर्जन के बड़े लक्ष्य से जुड़ी हुई हैं और इस कैबिनेट के ताजा फैसले के बाद जारी प्रेस वक्तव्य में भी इस लक्ष्य का उल्लेख किया गया है। दूसरी बात यह कि भारत के इन लक्ष्यों के प्रति समर्पण का ज्यादा सटीक परीक्षण इस बात से हो सकता है कि ग्लासगो में प्रधानमंत्री द्वारा की गई घोषणा के बाद से अब तक इस दिशा में कितने कदम उठाए गए हैं या नहीं उठाए गए हैं।
देखा गया ैहै कि भारत ने इस अवधि में इलेक्ट्रिक वाहनों और बैटरी मैन्युफैक्चरर्स के लिए प्रोडक्शन-लिंक्ड-इन्सेंटिव्स घोषित करने, ऊर्जा के उपयोग से जुड़े कानूनों में संशोधन करने जैसे कई कदम उठाए हैं और राष्ट्रीय हाइड्रोजन योजना भी घोषित की गई है। मगर इसके साथ ही कुछ और कदम उठाने होंगे। यह भी समझना होगा कि इस रास्ते पर भारत एकतरफा ढंग से आगे बढ़ता नहीं रह सकता। विकसित देशों को भी अपनी प्रतिबद्धताओं के प्रति गंभीरता दिखानी होगी। ग्लासगो सम्मेलन में भी भारत ने साफ किया था कि 2030 तक क्लाइमेट फंडिंग के तहत उसे 1 ट्रिलियन डॉलर की सहायता मिलनी चाहिए। नवंबर में इजिप्ट में होने वाले अगले दौर की जलवायु वार्ता में इस पहलू पर गंभीरता से गौर किया जाएगा, यह देखना होगा।
इसके साथ ही हमारी सरकार जो कदम उठा रही है, उस पर मैदानी अमल कितना हो रहा है, यह भी देखने वाली बात होगी। क्योंकि हम योजनाएं या रणनीति बना लेते हैं और उन्हें लागू भी कर देते हैं, लेकिन अमल के मामले में हमारी कार्यपालिका काफी उदासीन है। सरकारी काम की परिभाषा ही सुस्ती से संबद्ध कर दी गई है। एक पंचवर्षीय योजना बनती है, वो दस साल में भी पूरी नहीं हो पाती। उसकी योजनाओं को दूसरी और तीसरी में हस्तांतरित करना पड़ता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं, जो उठते हैं, सरकार योजनाएं बनाती है, परंतु वे जिंदा ही बने रहते हैं। उनका स्थाई हल नहीं निकल पाता। एक तो हमें कहीं न कहीं अपनी कार्यपालिका को और सक्रिय करना होगा। हर स्तर पर लक्ष्य तय किए जाएं, समय-समय पर समीक्षा हो, जो फेल रहें, उन्हें तत्काल हटाया जाए। दूसरे, लोगों में वायुमंडल और जलवायु परिवर्तन को लेकर और जागरूकता लानी होगी। सामाजिक सहयोग सबसे बड़ी बात है। फिर, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसके लिए और प्रयास करने होंगे। विकसित देश इसे बारे में अधिक ठोस कदम उठाएं, तभी हमारी धरती को सुरक्षित रखने के लिए हम ठोस पहल कर पाएंगे।
-संजय सक्सेना
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