RSS के सौ साल पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का भाषण और उसके मायने…

संजय सक्सेना

आरएसएस के सौ साल पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण का अब विश्लेषण हो रहा है। भाषण में ‘जेन ज़ी’ से लेकर ‘ख़ास समुदाय’ के ज़िक्र के मायने निकाले जा रहे हैँ। संघ प्रमुख मोहन भागवत बिना किसी का नाम लिए इस पीढ़ी की सोच पर भी सवाल उठाते दिखे, लेकिन उन्होंने उनकी समस्याओं पर ख़ास प्रकाश नहीं डाला। उन्होंने कहा, “एक उलटी और घातक विचारधारा लेकर चलने वाला एक नया पंथ उदय में बहुत पहले आया. आजकल वह भारत में भी अपने हाथ-पैर फैलाने की कोशिश कर रहा है.”उन्होंने कहा, “सभी देशों में उसके कारण जो सामाजिक जीवन की अस्त-व्यस्त अवस्था हुई है और एक तरह से अराजकता की ओर सारा समाज बढ़ रहा है. ऐसी संभावना दिखती है उसका अनुभव सब देशों में हो रहा है. और इसलिए इन सारी परिस्थितियों को लेकर विश्व जब पुनर्च‍िंतन करता है तो वह भारत की ओर अपेक्षा से देखता है. भारत इसका कोई उपाय निकाले, ऐसी विश्व में भी अपेक्षा है.”
भागवत ने कहा, “सौभाग्य से भारत में एक आशा की किरण ये दिखाई देती है कि नई पीढ़ी में देशभक्ति की भावना, अपनी संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास का प्रमाण निरंतर बढ़ा है.”

हालांकि भागवत ने अपने भाषण के शुरू में ही मोहन पहलगाम हमले की बात की.उन्होंने कहा, “एक दुर्घटना पहलगाम की भी हुई. हमला हुआ सीमा पार के आतंकियों के द्वारा. छब्बीस भारतीय नागरिकों की उनका धर्म पूछकर हत्या की. लेकिन उसके चलते सारे देश में प्रचंड दुख और क्रोध की लहर पैदा हुई. पूरी तैयारी करके सरकार ने, हमारी सेना ने उसका बहुत पुरज़ोर उत्तर दिया.” इसमें उनका सरकार के प्रति सकारात्मक नज़रिया देखने को मिला.

इसके बाद भागवत ने बात की ‘नक्सलवाद’ की.उन्होंने कहा, “देश के अंदर भी अशांति फैलाने वाले संविधान विरोधी उग्रवादी नक्सली आंदोलन पर शासन और प्रशासन की दृढ़ कार्रवाई भी हुई. और उनके अनुभव से उनकी विचारधारा का खोखलापन और उनकी क्रूरता का अनुभव होने के कारण समाज भी उनसे मोहभंग होने के कारण विमुख हो गया.”इसके बाद मोहन भागवत ने भारत के पड़ोसी देशों में हुई हालिया उथल-पुथल की बात की.

उन्होंने कहा, “प्राकृतिक उथल-पुथल है तो जन-जीवन में भी उथल-पुथल दिख रही है. श्रीलंका में, उसके बाद बांग्लादेश और फिर नेपाल में… हमारे पड़ोसी देशों में भी हमने इसका अनुभव किया. कभी-कभी होता है… प्रशासन जनता के पास नहीं रहता, संवेदनशील नहीं रहता, लोकाभिमुख नहीं रहता… जनता की अवस्थाओं को ध्यान में रख कर नीतियाँ नहीं बनतीं, तो असंतोष रहता है. परंतु उस असंतोष का इस प्रकार व्यक्त होना, यह किसी के लाभ की बात नहीं है.”

भागवत ने यह भी कहा, “प्रजातांत्रिक मार्गों से भी परिवर्तन आता है. ऐसे हिंसक मार्गों से परिवर्तन नहीं आता है. एक उथल-पुथल हो जाती है लेकिन स्थिति यथावत रहती है.”

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भारत के पड़ोस में एक विद्रोह हुआ है. सरकार के भीतर और यहाँ तक कि आरएसएस के भीतर भी यह समझ आ गई है कि आर्थिक रूप से यह सरकार पूरी तरह विफल रही है. बेरोज़गारी का स्तर अपने उच्चतम स्तर पर है.””भारत में लोग भूखे मर जाते अगर सरकार ने कोविड के बाद मुफ़्त राशन बाँटने का फ़ैसला न लिया होता. इतनी बड़ी संख्या में लोग सरकार द्वारा बाँटे जा रहे मुफ़्त भोजन पर निर्भर हैं. यह सरकार के प्रदर्शन सूचकांक को बहुत अच्छा नहीं दिखाता.”
इस भाषण यह चिंता दिखती है कि जैसा नेपाल में हुआ, वैसा ही कुछ भारत में भी हो सकता है? निश्चित रूप से यह चिंता भारत में अनुभव कि जा रही है कि किसी भी समय एक विद्रोह हो सकता है. हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि पिछले साल लोकसभा चुनावों के दौरान कुछ सर्वेक्षणों में लोगों के बीच बेचैनी पाई गई थी. इसकी वजह थी, रोज़मर्रा की ज़रूरतें- रोटी, कपड़ा, मकान- और सबसे महत्वपूर्ण बेरोज़गारी.”

हालांकि जैसी उथल-पुथल भारत के पड़ोसी देशों में हुई, वैसा भारत में होना बहुत मुश्किल है. लेकिन मोहन भागवत ने ‘जेन ज़ी’ से जुड़ी जो बात की है, उसके गहरे मायने हैं. विशेषज्ञ मानते हैँ कि भागवत ने चिंता ज़रूर ज़ाहिर की है. सही बात भी है, अब नरेंद्र मोदी की सरकार को काफ़ी साल हो गए हैं. अभी चुनाव के लिए वक़्त है लेकिन आरएसएस का नेटवर्क इतना फैला हुआ है क‍ि उनको हर दिन फ़ीडबैक मिलता होगा. उन्हें पता चलता होगा कि कहाँ लोग संतुष्ट हैं और कहाँ हालात चिंताजनक हैं.”

”आने वाले वक़्त में कई चुनाव भी आ रहे हैं. तो कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि संघ को भी फ़ीडबैक आया होगा क‍ि जो युवा हैं, उनमें असंतोष पैदा हो रहा है. मुख्य मुद्दा बेरोज़गारी का है जिसकी वजह से कुछ इलाक़ों से पलायन होता है. तो बीजेपी सरकार को मोहन भागवत एक संकेत दे रहे हैं कि वह अपनी आँखें खुली रखे और सतर्क रहे.” लद्दाख का मामला सामने है। सरकार ने सोनम वंगचुक कि गिरफ्तार करके कोई समझदारी का. काम नहीं किया है। वहां व्यापक विरोध शुरू हो गया है. उत्तराखंड में भी चिंगारी उठने लगी है। खैर, भागवत का काम सरकार को सन्देश देना था, सो दे दिया।

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धार्मिक सहिष्णुता
अपने भाषण में मोहन भागवत ने धार्मिक सहिष्णुता का ज़िक्र भी किया.मुसलमान और ईसाई समुदायों की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि भारत पर हमले हुए और विदेशी भारत में आ गए. अलग-अलग वजहों से भारत के लोगों ने भी उनकी विचारधारा और उनके पंथ-संप्रदायों को स्वीकार किया.
भागवत ने कहा, “वे विदेशी चले गए. लेकिन अभी भी उनका (धर्म) स्वीकार कर के रहने वाले हमारे अपने बंधु देश में हैं. सौभाग्य से भारत की परंपरा है कि वह सब प्रकार की विविधताओं का स्वागत और सम्मान और स्वीकार करती है. और इसलिए बाहर से आई विचारधारा को हम पराया नहीं मानते, अलगाव से नहीं देखते.”भागवत ने कहा कि लोगों को एक-दूसरे के प्रति सद्भावना और संयम से भरा होना चाहिए. उन्होंने कहा, “छोटी-बड़ी बातों पर या केवल मन में संदेह है, इसलिए क़ानून हाथ में लेकर रास्तों पर निकल आना, गुंडागर्दी, हिंसा करना, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है. मन में प्रतिक्रिया रख कर अथवा किसी समुदाय विशेष को उकसाने के लिए अपना शक्ति प्रदर्शन करना. ऐसी घटनाओं को योजनापूर्वक करवाया जाता है.”

संघ और उससे जुड़े कुछ संगठनों पर अक्सर धार्मिक असहिष्णुता फैलाने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में मोहन भागवत के इस बयान के क्या मायने हो सकते हैँ? क्या केवल संघ को सहिष्णु दिखाने का प्रयास है?  कई घटनाओं में अल्पसंख्यकों को निशाना नहीं बनाया जा रहा है. कुछ-कुछ समय में हमें ऐसी ख़बरें सुनने को मिलती हैं, जहाँ मुसलमानों को पीटा गया है. तो ऐसे में भागवत के इस तरह के बयान देने का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता. उन्होंने पहले भी ऐसे बयान दिए हैं. लेकिन जब ऐसी घटनाएँ होती हैं तब सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती.” और सवाल ये भी उठता है कि आरएसएस उन लोगों के ख़िलाफ़ कोई क़दम क्यों नहीं उठाता, जो उनके तंत्र का हिस्सा हैं? आरएसएस क्यों नहीं यह कहता कि अब से हम इनसे कोई संबंध नहीं रखेंगे और ये लोग आरएसएस से जुड़े किसी भी मंच का उपयोग नहीं कर पाएँगे?” कहा जा रहा है कि धार्मिक सहिष्णुता की बात करने से पहले संघ को अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिए. उसे विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दाल को समझाना चाहिए कि वे छोटी-छोटी बातों को बहाना बना कर अल्पसंख्यकों पर हमले न करे.”

भाजपा को लेकर नरमी के संकेत
पिछले कुछ सालों से आरएसएस प्रमुख के विजयादशमी पर दिए गए भाषण में उठाई गई बातों को केंद्र सरकार के लिए एक संदेश के तौर पर भी देखा जाता रहा है. लेकिन इस बार के भाषण से ऐसा नहीं लगा. स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से आरएसएस की तारीफ़ की थी. सौ साल पूरे करने पर पीएम मोदी ने डाक टिकट और सिक्का भी जारी कर दिया। सरकारी विज्ञापन भी दिया, जिस पर सवाल उठाये जा रहे हैँ।
कहीं ना कहीं प्रधानमंत्री आरएसएस का एजेंडा पूरी तरह से पूरा कर रहे हैं. शिक्षा पर संघ का एकाधिकार हो गया है। मोदी को पता है कि संघ की क्या अपेक्षाएँ हैं, सो वे उस पर ध्यान दें रहे हैँ, शायद इसीलिए संघ का रुख़ यह हो गया है कि बीजेपी को कोई चेतावनी या कोई चुनौती सार्वजनिक तौर पर न दी जाए.” कुछ मामलों में विरोध के स्वर इसलिए उठाये जाते हैँ, ताकि लोगों को ये ना लगे कि संघ भाजपा का पिछलग्गू हो गया है।

कुल मिलाकर जैसी कि उम्मीद थी, भागवत का भाषण बहुत संतुलित ही रहा। ऐसा लगा कि देश में जो हो रहा है, संघ उससे सहमत है। रही सहिष्णुता कि बात, तो ये केवल दिखावे के लिए ही है, संघ के अनुशंगिक संगठन कितने सहिष्णुहैँ, ये सामने है। अजेंडा पुराना है। ये भी समझा जा सकता है कि संघ जेन जी के साथ नहीं, सरकार के साथ है. सरकार को उसकी जरूरत है और उसे सरकार की। बातें कुछ भी की जाएं, सरकार भाजपा की ही चाहिए, एकमात्र सूत्र यही है।

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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