Editorial
संघ प्रमुख का संदेश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर नई दिल्ली के प्रतिष्ठित विज्ञान भवन सभागार में आयोजन किया। यहां समाजसेवी लोगों को संबोधित करते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जो कुछ भी कहा, उसमें उनका लक्ष्य भव्य व मजबूत भारत का पुनरूत्थान का बताया जा रहा है। यहां सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हिंदुत्व के साथ भारतीय मुसलमानों को जोडऩे का रहा। भागवत का साफ कहना था कि ये देश उनका भी है और संघ सामाजिक समरसता की बात हमेशा ही कहता है।
संघप्रमुख मोहन भागवत का कहना था कि उपभोक्तावाद की वृद्धि के कारण दुनिया में पाप, दु:ख और संघर्ष बढ़ रहा है। इससे बचने के लिए लोगों को केवल धर्म का मार्ग अपनाना चाहिए। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के शब्दों में दोहराया कि, भारत के पास धर्म है जिसे उसे समय-समय पर दुनिया को देनी चाहिए। धर्म शाश्वत है। उन्होंने कहा कि धर्म मूल तत्व है जो स्वभाव होता है। इसका धर्मांतरण नहीं किया जा सकता।
उन्होंने हिंदुत्व की परिभाषा पर भी विस्तार से बात करते हुए समझाया कि, हिंदुत्व या हिंदुपन क्या है? अगर इसे संक्षेप में कहना हो तो दो शब्द हैं सत्य और प्रेम। दुनिया का संचालन एकता से होता है, सौदेबाजी और अनुबंधों से नहीं। चूंकि हिंदुस्तान का जीवन मिशन विश्व कल्याण है। उनका कहना था कि विकास की दौड़ में दुनिया ने भीतर झांकना छोड़ दिया है। अगर भीतर खोज होगी तो ऐसी अनंत खुशी मिलेगी जो कभी खत्म नहीं होगी। यही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। इससे ही पूरी दुनिया में शांति और सौहार्द का माहौल बनेगा। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदुत्व किसी एक संप्रदाय या समुदाय की विचारधारा नहीं है, बल्कि यह वह सोच है जो सत्य और प्रेम पर आधारित होकर सबको साथ लेकर चलती है।
सामाजिक विविधता और उससे संघर्ष की आशंका पर सवाल उठते हुए मोहन भागवत ने स्पष्ट कहा कि समाज में जीवन में विविधता है, लेकिन कई बार इनमें संघर्ष भी दिखाई देता है, हमें सबको साथ लेकर चलना है और इसके लिए सबके बीच समन्वय स्थापित करना है। इसके लिए कई बार कुछ त्याग भी करना पड़ता है जिसके लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। सबको साथ लेकर देश को मजबूत बनाएंगे।
मोहन भागवत कहते हैं कि आरएसएस का लक्ष्य यह है कि जो संघ में हो रहा है, वह परिवार और समाज में भी हो। इसके लिए प्रयास करना चाहिए। उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि समाचारों की दुनिया से भारत को नहीं समझा जा सकता। समाचारों में जितना गलत दिखाई देता है, उससे 40 गुना अधिक अच्छा समाज के बीच हो रहा है। इसलिए समाज को संगठित करने के लिए जातिगत भेदभाव को यथाशीघ्र समाप्त करना चाहिए। इसके लिए स्वयंसेवकों को अपने आसपास की बस्तियों तक पहुंचना चाहिए। क्योंकि जब तक समाज में आपसी अविश्वास और भेदभाव हो, उसे समाप्त किए बिना संबंध मजबूत नहीं हो सकता।
समाज के पददलितों की चिंता को स्वर देते हुए भागवत ने कहा कि समाज के कमजोर वर्गों का सहयोग एक स्वाभाविक कार्य हो जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि हमारा इतिहास और संस्कृति एक ही है। केवल नक्शे पर रेखाएं खिंचने से नए-नए देश बन गए हैं, लेकिन पूर्व में उनकी संस्कृति भी एक ही रही है। दूसरे देशों को जोडऩे का कार्य सबसे पहले पड़ोसी देशों से शुरू होना चाहिए। उनके साथ भी आत्मीय संबंध बनाकर उनके विकास की भी चिंता होनी चाहिए। युवाओं का आह्वान करते हुए मोहन भागवत ने कहा कि अपनी बातों को मनवाने के लिए हिंसात्मक तरीका नहीं अपनाना चाहिए। क्योंकि इसका उपयोग करके लोग देश को तोडऩे का काम करते हैं।
कुल मिलाकर संघ प्रमुख का भाषण एक तरह से वर्तमान परिस्थितियों के विरोधाभास को ही दर्शाता दिख रहा है। कहीं न कहीं उनके मन में कसक है, जो उनके वक्तव्य में झलकती है। वे समाज को बांटने के बजाय जोडऩे की बात कर रहे हैं, तो कहीं न कहीं नई पीढ़ी को संदेश भी दे रहे हैं। संघ की राजनीतिक पार्टी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए भी उनके वक्तव्य में संदेश छिपा है, जिसे समझने की आवश्यकता है। अब संघ और उसके आनुषांगिक संगठन कितना अनुसरण करते हैं, ये देखना होगा।
संजय सक्सेना





