Editorial
बिहार के नतीजे.. कतई आश्चर्यजनक नहीं..!

संजय सक्सेना

बिहार के परिणाम कतई आश्चर्यजनक नहीं थे। राजनीतिक अटकलें लगाने वालों के लिए सबक जरूर मिला है कि अब जो एक बार तय हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता। उत्तर प्रदेश से लेकर कई राज्यों में पहले भी ऐसा हुआ है कि कम और बहुत कम अंतर से जीत वाली सीटों की संख्या बढ़ गई है और बिहार में भी ऐसा हुआ।
बिहार चुनाव के नतीजों से अगर कोई एक सबक सभी राजनीतिक दल सीख सकते हैं तो वो यह है कि मतदाता अत्यधिक नकारात्मकता और लोकप्रिय नेताओं पर हमले पसंद नहीं करता। यह भी कि सत्ता में जो बैठा है, उसकी फ्रीबीज योजनाएं अब परिणामजनक हो रही हैं और लोग नकद के बदले वोट भी भरकर दे रहे हैं। चुनावी मुद्दों में अब केवल और केवल नकद योजनाएं ही महत्वपूर्ण होती दिखाई देने लगी हैं।
हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि इस बार चुनाव सर्वेक्षणकर्ताओं ने दिशा तो सही बताई, लेकिन मतदाताओं के मूड की गहराई को समझने में चूक की। सच तो यह है कि जब मतदाता मन बना लेता है तो वह निर्णायक रूप से एक ही दिशा में जाता है। इस मामले में महिलाओं का वोट- जो इस बार पुरुषों से ज्यादा था। और फिर वही बात, कि नकद के बदले वोट दिया गया।
इस बार के चुनाव में प्रशांत किशोर एक नया चेहरा थे। चुनाव से पहले उन्हें खूब प्रचार-प्रसार तो मिला, लेकिन वे बुरी तरह से फ्लॉप हो गए। वे एक भी सीट नहीं जीत पाए और चुनाव से पहले की उनकी सभी भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं। नतीजे बताते हैं कि मीडिया में छाए रहने से बात नहीं बनती।
देखा जाए तो  बिहार चुनाव से सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ है। अब दिल्ली में उसके गठबंधन को कोई खतरा नहीं है, जिसमें जदयू एक महत्वपूर्ण सहयोगी है। लेकिन साथ ही, जदयू पर अपनी बढ़त बनाकर उसने यह भी साफ कर दिया कि नीतीश के बाद बिहार में वही मुख्य राजनीतिक धुरी बनेगी।
हालांकि, जदयू से ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद भाजपा नीतीश को अस्थिर नहीं करना चाहेगी, क्योंकि उनकी मौजूदगी उसे बिहार में अल्पसंख्यकों तक पहुंचने का मौका देती है। भाजपा अभी कोई दांव नहीं लगाना चाहेगी। लेकिन वह शायद कुछ बड़े मंत्रालय और 2029 में लोकसभा सीटों का बड़ा हिस्सा मांग सकती है।
तेजस्वी के लिए सबक गंभीर हैं। नीतीश की सुनामी में न सिर्फ उन्होंने अपनी सीटें गंवाई, बल्कि चुनाव से कुछ हफ्ते पहले तक राहुल गांधी के पीछे रहकर उन्होंने साफ तौर पर एक गलती की। उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना है कि किस पर भरोसा करना है और किसे दरकिनार करना है।
विपक्षी गठबंधन को भले ही वोट अधिक मिले हों, लेकिन सीटों की संख्या निराशाजनक ही रही। चुनाव प्रचार के दौरान सत्तापक्ष का जिस तरह से जमीन पर विरोध हो रहा था, विपक्ष को जनमत मिलता दिख रहा था, प्रबंधन के दम पर परिणामों में उसे बेअसर साबित कर दिया गया। यानि वोट प्रतिशत के अब कोई मायने नहीं रह गये हैं। और न ही मुद्दों पर मिलता समर्थन जीत दिलाने की गारंटी बचा है।
फिलहाल भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सफल हो रही है और उसके रणनीतिकारों द्वारा चुनाव के पूर्व किये गये दावे भी एकदम सही साबित हो रहे हैं। रही मुद्दों की बात, तो नकद योजनाओं ने मुद्दों को मुर्दा बना ही दिया है और चुनावी प्रबंधन सर्वोपरि हो गया है, जिसमें चुनाव आयोग से लेकर प्रशासनिक मशीनरी की भूमिका महत्वपूर्ण है। अनुमान लगाने वालों को अब इन तथ्यों पर अधिक गौर करना होगा। फिलहाल बिहार में एनडीए को बहुमत मिल चुका है और अब मुख्यमंत्री बनाने की कवायद भी शुरू हो गई है। देखते हैं फिर से नीतीश या कोई और…?

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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