Editorial : तमसो मा ज्योतिर्गमय

आत्मावलोकन और आत्मालोकन। दो मिलते जुलते शब्द। दोनों के अर्थ अलग, परंतु एक-दूसरे के पूरक। आत्मावलोकन का अर्थ है अपने अंदर झांकना। सामान्य भाषा में कहें तो अपने गिरेबान में झांकना। परंतु केवल झांकना ही नहीं, अंदर का मूल्यांकन भी करना। और आत्मालोकन का अर्थ है अपने अंदर को आलोकित करना। जब तक हम आत्म आलोकन नहीं करेंगे, आत्मावलोकन का गुंजाइश बहुत कम होगी।
और हम जो पर्व मना रहे हैं, दीपावली…यह आत्मालोकन का ही पर्व तो है। खुशियां मनाने का पर्व। पौराणिक कथाओं, मिथकों और कहानियों में बहुत कुछ सुनते आये हैं। हम इन कथाओं-कहानियों को बड़े ऊपरी तौर पर सुनते हैं और बस औपचारिकताएं पूरी करके पर्व मना लेते हैं। दीपावली एक ऐसा पर्व है, जो उत्सवों का सरताज माना जाता है। आलोकित करने का त्यौहार। घोर अमावस की रात को दिये जलाकर बाहर रोशनी करते हैं, और इसी दिये से यह संदेश भी ग्रहण करते हैं कि स्वयं जलकर दूसरों को रोशनी देना ही असल मायने में उत्सव मनाना है।
अंधकार से संवाद करने की कला है और निराशा के बीच आशा का दीप जलाने का नाम है दीपवली। गांव की ऊबड़-खाबड़ गलियां हों या महानगर की ऊंची इमारतें, हर जगह कोई न कोई दीप किसी स्मृति, किसी प्रार्थना, किसी सपने के नाम जलता है। यह रोशनी बाहर जितनी दिखती है, भीतर उतनी ही उतरे, तब इसका अर्थ है। दीपावली बाहरी उजास से अधिक भीतर के अंधेरे को पहचानने और उसे प्रेमपूर्वक आलोकित करने की प्रक्रिया है।
मिट्टी के दीये का अपना सौंदर्य है। वह भले ही छोटा हो, पर उसका प्रकाश सबसे कोमल और सबसे सच्चा होता है। उसमें मनुष्य का परिश्रम है, धरती की गंध है और आस्था की गर्मी है। वह दीप जब जलता है, तब लगता है जैसे किसी किसान की हथेली, किसी मां के नेत्र, किसी बच्चे की हंसी-सब मिलकर उस लौ को थरथरा रहे हों। यही मिट्टी का दीया हमारे जीवन की सबसे गहरी प्रतीक-कथा कहता है कि जो झुकता है, वही जलता है, जो मिटता है, वही प्रकाशित होता है।
दीपावली का उत्सव केवल लक्ष्मी की आराधना नहीं है, बल्कि श्रम और सौंदर्य, करुणा और स्मृति, उत्सव और साधना का संगम है। इस दिन हर व्यक्ति, चाहे गरीब हो या अमीर, कुछ न कुछ सजाता है-अपना घर, अपना मन या अपनी आशा।
यह सजावट केवल भौतिक नहीं, मनोवैज्ञानिक भी है। यह सजाने, संवारने, संजोने का उत्सव है-जैसे हम अपने भीतर के अस्त-व्यस्त भावों को भी दीपों की पंक्तियों में सजा दें। कवियों ने हमेशा दीपावली को प्रकाश और अंधकार के संघर्ष के रूप में देखा है, पर यदि ध्यान से देखें तो यह संघर्ष नहीं, संवाद है। अंधकार प्रकाश का शत्रु नहीं, उसका आवश्यक आधार है। बिना अमावस्या के चांद का अर्थ अधूरा है।
दीप का सौंदर्य तभी खिलता है, जब उसके चारों ओर घना अंधेरा हो। और हमारा जीवन भी ऐसा ही है। अंधकार ही तो है, जो हमें प्रकाश का मूल्य सिखाता है। दुख हमें आनंद की गरिमा दिखाता है और हानि हमें प्रेम की गहराई समझाती है। सांझ होते ही बच्चे फुलझड़ी जलाते हैं तो आकाश में चिंगारियां नहीं उठतीं, वहां हजारों इच्छाएं भी उड़ती हैं।
दीपावली का प्रकाश उन अनगिनत स्वप्नों का प्रतिरूप है, जो मनुष्य के अंतरमन में जलते रहते हैं। जब चारों ओर दीपों की पंक्तियां थिरक रही होती हैं, हवाओं में झूल रही होती हैं, उनकी रोशनी कम-ज्यादा होती है। यह वह क्षण है जब मनुष्य अपने भीतर के ईश्वर से मिल पाता है, इसे अनुभव करना आवश्यक है। यह अनुभूति ही हमें अपने अंदर के स्व से मिलाती है।
कहने को दीपावली का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग है। किसी के लिए यह संपन्नता का प्रतीक है, किसी के लिए मिलन का और किसी के लिए स्मृतियों का। हर दीये में एक प्रकाश है, तो एक बीते समय की परछाई भी दिखती है। दीया जलाने में एक मौन प्रार्थना है, उजाला केवल घर का न हो, बाहर का न हो, अंतरमन का भी हो। दीपावली एक दृश्य नहीं, एक प्रतीक है-प्रकाश का, ज्ञान का, सत्य का।
हम इसे श्री राम के अयोध्या लौटने का उत्सव कहें, आत्मा की विजय का, प्रेम के पुनर्जन्म का, फसल कटने का, सबका सार एक ही है-अंधकार से प्रकाश की ओर, भय से विश्वास की ओर, बाह्य से अंतर की ओर यात्रा। देखा जाए तो हमारी संस्कृति हमें यह सिखाती है कि उत्सव केवल प्रदर्शन नहीं, संवेदना है। यह पर्व हमें जोड़ता है-परिवारों से, पड़ोसियों से और यहां तक कि अजनबियों से भी। एक दीप किसी और के द्वार रख देना, यह बताना है कि हम साथ हैं, हम एक ही प्रकाश में जी रहे हैं। यही भारतीयता है। यही संदेश है इस दीप पर्व का-तमसो मा ज्योतिर्गमय….।
शुभ दीपोत्सव।