संपादकीय
राज्यपालों के अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला..

संजय सक्सेना
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राष्ट्रपति और राज्यपाल की बिल मंजूरी की डेडलाइन तय करने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाया है और इसमें डबल बैंच के फैसले को बदल दिया गया है। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक पर सहमति देने या ठुकराने के लिए को समय-सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। राष्ट्रपति ने सर्वोच्च अदालत से इस बारे में राय मांगी गई थी कि क्या संवैधानिक रूप से समयावधि निश्चित न होने की वजह से राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों को मंजूरी देने, ठुकराने, रोकने के लिए राज्यपालों पर किसी तरह की कोई समय सीमा निर्धारित की जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राज्यपालों के पास 3 विकल्प हैं। या तो मंजूरी दें या बिलों को दोबारा विचार के लिए भेजें या उन्हें प्रेसिडेंट के पास भेजें। राज्यपाल विधेयक को कानून बनाने के बीच सिर्फ एक रबर स्टैंप नहीं हैं। राज्य विधानसभाओं से पास बिलों को मंजूरी देने के लिए गवर्नर और प्रेसिडेंट के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती और ज्युडिशियरी भी उन्हें डीम्ड असेंट नहीं दे सकती।
डीम्ड असेंट को आसान भाषा में कहा जए तो अगर राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास कोई बिल मंजूरी के लिए गया है, और वे समय पर जवाब नहीं देते, तो कानून यह मान लेता है कि मंजूरी दे दी गई है। यानी, बिना बोले भी हां मान ली जाती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की जगह इस मामले में चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुआई वाली संविधान पीठ ने सुनवाई की। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंद्रचूडक़र शामिल थे। सुनवाई 19 अगस्त से शुरू हुई थी। सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार का पक्ष रखा। वहीं, विपक्ष शासित राज्य तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने केंद्र का विरोध किया।
सीजेआई बीआर गवई ने कहा कि सभी मामलों में कोर्ट गवर्नर और राष्ट्रपति निर्देश नहीं देगा। यह सही हालात पर निर्भर करेगा। कोर्ट मेरिट में नहीं जा सकता, लेकिन लंबे समय तक, बिना किसी वजह के, या अनिश्चित देरी होने पर, कोर्ट सीमित निर्देश जारी कर सकता है। राष्ट्रपति के साथ भी ऐसा ही है। इस मामले में न्यायिक समीक्षा पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है, लेकिन लंबे समय तक कार्रवाई न करने की स्थिति में, संवैधानिक कोर्ट अपने संवैधानिक पद का इस्तेमाल कर सकता है। अदालत का कहना है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए न्यायिक रूप से समयसीमा तय करना सही नहीं है।
जब भी राज्यपाल राष्ट्रपति के लिए बिल रिजर्व करते हैं, तो राष्ट्रपति को आर्टिकल 143 के तहत सलाह नहीं लेनी चाहिए। बिल के स्टेज पर राष्ट्रपति और राज्यपाल का फैसला न्यायसंगत नहीं है। राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करके बदला नहीं जा सकता। संविधान के आर्टिकल 142 में सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों का वर्णन है। साथ ही राज्यपाल की मंजूरी को कोर्ट नहीं बदल सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल अनिश्चितकाल तक सहमति रोक कर नहीं रख सकते। सर्वोच्च अदालत का कहना है कि भारत के सहकारी संघवाद में राज्यपालों को विधेयक को लेकर सदन के साथ संवाद की प्रक्रिया अपनानी चाहिए और अवरोधक रवैया नहीं अपनाना चाहिए।
असल में, विपक्ष शासित राज्यों ने यह दलील पेश की कि संवैधानिक प्रमुखों ने चुनी हुई सरकारों के चुनावी वादों और सुधारों को लागू करने की कोशिशों को नाकाम करने के लिए विधेयकों पर कार्रवाई नहीं की। राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच संवाद न होना भी एक संवैधानिक अवरोध की भांति ही होता है। देखा गया है कि अधिकांश राज्यपाल किसी एक राजनीतिक पार्टी के सदस्य के रूप में व्यवहार करते हैं और अवरोध या विधेयक रोकने के पीछे भी यही कारण बताया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अब इस मामले पर फिलहाल विराम लगा दिया है और बाकायदा पूरी व्याख्या करते हुए व्यवस्था दी है। खास बात यह कही गई है कि संवाद की प्रक्रिया अपनाना चाहिए।
sanjay saxena



