Editorial
टूटते परिवार, बढ़ते वृद्धाश्रम

क्या हम एकाकी परिवारों के भी बिखराव की ओर बढ़ रहे हैं? क्या हमारी संवेदनाएं केवल हमारे स्वयं के इर्द गिर्द ही सिमटती जा रही हैं? ऐसे तमाम सवाल आज उस भारतीय समाज में गूंजने ही नहीं लगे, अपितु परेशान करने लगे हैं, जो अपनी अक्षुण्ण संस्कृति ओर संस्कारों के लिए जाना जाता है। हमारे परिवारों में वृद्धजनों को नकारे जाने का मुद्दा भी बहुत गंभीर और परिवारों के विखंडन का बड़ा कारक बनता जा रहा है।
हाल ही में उत्तर भारत के सबसे तेजी से विकसित होने वाले शहरों में शुमार नोएडा के एक वृद्धाश्रम में वृद्धों की दयनीय स्थिति की खबरों ने वास्तव में विचलित कर दिया। उस वृद्धाश्रम में पुलिस को बहुत सारे वृद्ध दम्पती बेहद दयनीय हालत में मिले। ये कुछ परिवारों में नहीं, हमारे पूरे समाज में बढ़ती असंवेदनशीलता और अलगाव का प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सकता है। परिवारों में जड़ें फैला चुकी यह बीमारी एक गहरा भावनात्मक शून्य पैदा कर रही है। यह एक महामारी जैसा सामाजिक व्यवहार बनता जा रहा है, जहां युवाओं को महत्व देने वाली दुनिया में वृद्धों को उपयोगिता का वह स्थान नहीं मिल रहा, जहां पर समाज अपने जुड़ाव को बुनता है।
कहां तो हम भगवान राम और श्रवण कुमार की दुहाई देने वाले समाज से संबंधित होने पर गर्व करते हैं, परंतु दूसरी तरफ यह भी देख रहे हैं कि संतानें अपने माता-पिता के प्रति कितने कृतघ्न और उदासीन होते जा रहे हैं? यह एक खतरनाक संकेत है, जो हमारे समाज ही नहीं, पूरे देश के लिए दीमक का काम कर रहा है। जाति, धर्म, लिंग, जाति के विभेदों के बाद वृद्ध बनाम युवा का यह पूर्वग्रह भारत जैसे लोकतंत्र और सांस्कृतिक-आध्यात्मिक धरोहरों वाले देश के लिए हतोत्साहित करने वाला प्रतीत हो रहा है।
तथाकथित प्राइवेसी और आजादी को ओढक़र नकली जीवन जीने की ओर बढ़ती हमारी नई पीढ़ी कहीं न कहीं परिवारों में संवादहीनता को बढ़ाती जा रही है। सम्प्रेषण की जटिलता, नौकरी-पेशे की जवाबदेही, सिकुड़ते शहरों और गांव में रहने की जिद इस सत्य को झुठला नहीं सकते कि युवा थोड़ा सा भी संवेदनशील और कृतज्ञ होता, तो वस्तुस्थिति कुछ और होती।
हमेशा इस बात पर जोर दिया जाता है कि भारत युवाओं का देश है और भारत की 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है। यदि हम 2020 तक के आंकड़ों को देखें, तो पाएंगे कि एक भारतीय की औसत जीवन-प्रत्याशा 29 वर्ष है, जबकि चीन की 37 और जापान की 48 वर्ष है। यह भी अनुमान किया गया है कि 2030 तक भारत का निर्भरता-अनुपात 0.4 से थोड़ा अधिक होगा।
परंतु, बता सकते हैं युवा देश होने की सार्थकता क्या है? क्या मां-बाप से दूरियां बढ़ाकर या उन्हें घर से निकालकर हम वास्तव में खुश रह सकते हैं? और क्या परिवार के मायने बदलने के प्रयास नहीं हो रहे हैं? यह प्रश्न इसलिए पूछना जरूरी है क्योंकि हमारे देश में वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसीलिए तो प्रश्न उठता है, क्या माता-पिता के साथ परिवार में रहना वाकई इतना मुश्किल है? क्या वे परिवार की जड़ नहीं हैं? हम बात तो विश्व-बंधुत्व की करते हैं, लेकिन अपने घर में अपने मांता-पिता को ही नहीं रख पा रहे हैं। ऐसे समय में जब उत्पाद की पहचान दिन-प्रतिदिन मानवीय पहचान को कम करती जा रही है और ग्राहक को भगवान का दर्जा दिया जा रहा है, माता-पिता कहां खड़े हैं?
आंकड़ों के आइने में वैश्विक स्तर पर देखें तो पाएंगे कि 2050 तक दुनिया में हर 6 में से एक व्यक्ति 65 से अधिक आयु का होगा। यानि, 2050 तक यूरोप और उत्तरी अमेरिका में रहने वाला हर 4 में से एक व्यक्ति 65 वर्ष या उससे अधिक आयु का हो सकता है। इस अनुमान के अनुसार, 80 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों की संख्या 2019 में 143 मिलियन से बढक़र 2050 में 426 मिलियन हो सकती है। ये मानवीय संख्याएं हैं और मनुष्यों को देखभाल और करुणा की आवश्यकता होती है।
हम जब विकसित भारत और ट्रिलियन इकानामी की बात कर रहे हैं, दूसरी ओर वृद्धाश्रमों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। परिवार नाम की संरचना का तो नामोनिशान मिटता दिख रहा है। अवैध संबंधों को लेकर होने वाले अपराधों की बाढ़ आ रही है। क्या ये चिंतनीय असंतुलन नहीं है? आजादी का अर्थ अवैध संबंध या चारित्रिक अराजकता तो कतई नहीं हो सकता। हमें लगता है कि हम अपने बुजुर्गों के साये में अधिक सुरक्षित रह सकते हैं, एक अनुशासन का संकेतक और आशीर्वाद-स्नेह की छतरी ही हमारे परिवारों को सुरक्षित रख सकती है, यह शाश्वत सत्य है। यदि हमें स्वयं को भी सुरक्षित रखना है तो परिवार एक आवश्यक शर्त है, इसे समझना ही होगा।
– संजय सक्सेना



