Editorial
चीन से नजदीकी, थोड़ा सम्हल कर…

कुछ ही दिन पहले की बात है, जब हमने चीनी उत्पादनों के बहिष्कार का अभियान चलाया था। अचानक माहौल बदला और हम चीन से गलबहियां डालने लगे। यह समय की मांग ही कही जा सकती है और चीन से कूटनीतिक रिश्तों में सुधार की मोदी की पहल को समझा जा सकता है। एक समय में मुक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अमेरिकी रणनीति की बुनियाद रहे भारत-अमेरिका संबंध आज सदी के निचले स्तर पर पहुंचते दिख रहे हैं। ट्रम्प के कदम न केवल बेतुके हैं, अपितु खुद अमेरिका के हित में भी नहीं हैं।
अमेरिका लंबे समय से भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ महत्वपूर्ण संतुलनकारी ताकत के रूप में देखता रहा है। वह भारत और रूस के पुराने संबंधों को भी पसंद नहीं करता। इसके बावजूद भारत पर टैरिफ का बोझ बढ़ाता चला जा रहा है। ट्रम्प भारत को रूस से तेल खरीद के लिए दंडित कर रहे हैं, जबकि भारत तो चीन या यूरोप की तुलना में रूस से कम ही ऊर्जा खरीदता है। ट्रम्प का उद्देश्य भारत को ट्रेड डील के लिए मजबूर करना है। वहीं, चीन और रूस के करीब जाना भी उसे पसंद नहीं।
क्या ये कहें कि ट्रम्प जानबूझ कर भारत को चीन की ओर धकेल रहा है? पिछले अनुभव तो यही बताते हैं कि एक भरोसेमंद साझेदार बनने के बजाय चीन द्वारा भारत की कमजोरियों का फायदा उठाने की आशंका अधिक है। 1951 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया, तब से ही भारत-चीन संबंधों में प्रतिद्वंद्विता और अविश्वास भर गया था। आज जो सत्ता में हैं, वो ही कुछ साल पहले तक चीन को लेकर न जाने क्या-क्या कहते रहे हैं और तत्कालीन सत्ताधीशों पर आरोप भी लगाते रहे हैं।
2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो इन रिश्तों में बदलाव को उन्होंने अपना मिशन बनाया। संबंधों में बेहतरी की उनकी आशा गलत नहीं थी। लेकिन इसका फायदा उठाकर जब चीन ने क्षेत्र में अपना दखल बढ़ाना जारी रखा, और तब भी उन्होंने रवैया नहीं बदला, तो यह गलत था। और बड़ी बात ये है कि चीन ने अपने मंसूबे छिपाने के अधिक प्रयास नहीं किए। पीएम मोदी जब पहली बार शी जिनपिंग की अगवानी कर रहे थे तो चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमाक्षेत्र में अतिक्रमण कर लिया।
भले ही 2014 की उस समिट को सफल बताया गया हो, लेकिन चीनी सेनाएं तब तक भारत की जमीन पर डटी रहीं, जब तक कि हमने वहां उनकी रक्षात्मक किलेबंदी को ध्वस्त नहीं कर दिया। 2014 से 2019 के बीच जब चीन ने पाकिस्तान के साथ रणनीतिक रिश्ते मजबूत किए, भारतीय सीमा पर सैन्यीकृत बॉर्डर विलेज बनाए और ऊंचाई वाले स्थानों पर सैन्य ढांचे में विस्तार किया, तब भी मोदी ने जिनपिंग से 18 बार मुलाकात की थी। हमने 2017 में डोकलाम में चीनी कब्जे के बाद भी कूटनीति जारी रखी। अप्रैल 2020 में जब चीनी सैनिक सीमा पर कई जगहों से भीतर घुस आए तब जाकर भारत ने चीन के प्रति अपनी नीति को स्थगित किया।
लेकिन, चीन ने केवल सेनाओं को थोड़ा पीछे किया। हम जो आरोप लगाते आ रहे थे कि हमारी सीमाओं पर अतिक्रमण किया है, उस बारे में हमारी चुप्पी फिलहाल रहस्यमय ही कही जा सकती है। भले ही अमेरिका की टैरिफ नीति के चलते ही सही, पांच साल बाद हम फिर उसी जाल में फंसने का जोखिम उठा रहे हैं। रूस से नजदीकी बढ़ाना तो पुरानी नीति भी रही है और रूस ने हमारे साथ विश्वासघात भी नहीं किया। प्रधानमंत्री तिआनजिन में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भाग लेकर लौटे हैं। हम रूस के साथ ही चीन के करीब जा रहे हैं, तो सम्हल कर चलना होगा। सीमाओं को लेकर भी। और व्यापार के मामले में भी। कहीं हम फिर चीन के चक्कर में अपने आत्मनिर्भर भारत पर पानी न फेर दें।



